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Showing posts from March, 2021

YOGAMAYA

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योगमाया  श्री योगमाया वह अद्भुत तत्त्व है जिसके कारण निर्गुण निराकार परब्रह्म कल्याण गुणगणाकर मूर्तिमान् बन जाते हैं यद्यपि इन दोनों— शक्ति तथा शक्तिमान में कोई भेद नहीं तथापि भक्तों से आराधित शक्तिमान् जिस प्रकार श्रीराम- कृष्णादि अनेक रूपों में दर्शन देते हैं, उसी प्रकार ऋषि - मुनि - संस्तुता शक्ति भी श्रीदुर्गा, देवी, काली आदि नानाविध रूपों में प्रकट होती हैं। भाव के तारतम्य के अनुसार ही शास्त्र में, उपासना विधि में व्यावहारिक भेद दृष्टिगोचर होता है, जैसे किसी भावुक भक्त को अघटन घटनापटीयसी शक्ति देवी की अपार महिमा के सम्मुख ब्रह्मा - विष्णु - महेश भी गौण प्रतीत होते हैं तो किसी दूसरे भक्त को शक्ति शक्तिमान के अधीन विदित होती है। परमार्थतः दोनों एक ही वस्तु हैं। शास्त्र में इन महाप्रभावा योगमाया का वर्णन अनेक स्थलों पर उपलब्ध है। वेद के एक मन्त्र में शक्ति - शक्तिमान को भाई - बहिन मानकर उनका आह्वान किया गया है-   एष ते रुद्र भागः सह स्वस्त्राम्बिकया तं जुषस्व। 'अम्बिका बहिन के साथ हे रुद्र! यह आपका भाग है, इसे पाइये।'  मार्कण्डेयपुराण तथा देवीभागवत इन जगतजननी ...

A RICH ASSET OF INDIAN CULTURE - YOGA

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भारतीय संस्कृति की एक समृद्ध सम्पत्ति - योग   मानव - जीवन का सर्वोत्तम पुरुषार्थ है भगवत्साक्षात्कार। यद्यपि श्रीभगवान् अव्यक्त और अदृश्य है तथापि भक्तिपूर्वक ध्यान करने वाले भाग्यशाली महानुभावों को वे अपना दर्शन देकर अवश्य ही कृतार्थ कर देते हैं। अतएव वे न केवल अदृश्य हैं अपितु व्यक्तरूप भी हैं। यह ध्यान वैदिक वाङ्मय में उपदिष्ट योग के छः अङ्गों में से तीसरा है 'तथा तत्प्रयोगकल्पः।  प्राणायामः प्रत्याहारो ध्यानं धारणा तर्कः समाधिरित्युच्यते योग।  यहाँ ध्यान के अनन्तर धारणा का उल्लेख है और महर्षि पतञ्जलि के अनुसार धारणा के पश्चात् ध्यान होता है। साधक जब अपने चित्त की वृत्ति को प्रयत्नपूर्वक अपने आराध्य प्रभु के रूप के चिन्तन में लगा देता है, तब वह स्थिति 'योग' कहलाती है । आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः। तस्या ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते।। इस प्रकारका ध्यान - योग संध्योपासना के समय सुकर है। जितनी बार संध्योपासना होगी, (प्रातः, मध्याह्न और सायम्) उतनी बार ध्यान भी हो जायगा। कोई - कोई साधक अपने मनोमन्दिर में विराजमान प्रादेशमात्र आकार वाले शङ्ख, चक्र, गदा, पद्मध...

UTILITY OF YOGA

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योग की उपादेयता  असंख्य प्राणियों के भवसागर से पार करने हेतु महर्षि पतञ्जलि ने योग का निरूपण किया है। कुछ लोगों का विश्वास है कि हिरण्यगर्भरचित योगसूत्र जो अब लुप्त हो गये हैं, उन्हीं के आधार पर योगसूत्र की रचना हुई। महर्षि पतञ्जलि ने अष्टाङ्ग योग का प्रतिपादन किया, जो 'यम - नियम - आसन- प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि' के रूप में गृहीत है। विवेकमार्तण्ड में भी इसी का अनुमोदन किया गया है, जो षडङ्गभूत है। आसनं प्राणसंरोधः प्रत्याहारश्च धारणा। ध्यानं समाधिरेतानि योगाङ्गानि वदन्ति षट्।। भारतीय वाङ्मय में योग पर बृहत् चिन्तन प्रस्तुत किया गया है, जिसके आधार पर साधक अपनी साधना का दिशा  निर्देश प्राप्त करते हैं। सृष्टि का स्वरूप दो पदार्थो पर आधारित है 'योग और भोग'। इन्हीं दोनों में सब कुछ अन्तर्भूत है। दोनों का फल भी सुनिश्चित है। भोग बन्धन और योग मुक्ति प्रदान करता है। यह भी निर्विवाद है कि बन्धन किसी को स्वीकार्य नहीं, परंतु प्रमाद जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। बिना परिश्रम के वस्तु सहज ग्राह्य समझकर उसमें सुख की अनुभूति मात्र मृगमरीचिका बनकर रह जाती है। योगी...

ATTEMPT TO CHANGE THE FORM OR NATURE OF KARMA YOGA

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  कर्मयोग का स्वरूप या स्वस्वरूप के परिवर्तन का प्रयत्न  'कर्मयोग' इस शब्द का प्रयोग बुद्धियोग के लिये किया गया है। यह सोचना बहुत कठिन है कि कोई घटना सहसा घटित हो जायगी। मन के रहस्यों के गम्भीर अध्ययन से यह पता चलता है कि विश्व के धरातल पर कोई घटना घटित होती है वह अकारण नहीं है, बल्कि एक महती शक्ति के नियन्त्रित ध्यान और संकल्प का ही परिणाम है। जब आप इस योग - साधना में आगे बढ़ते हैं तो आप देखेंगे कि आपकी वर्तमान मानसिक स्थिति विगत सभी घटनाचक्रों के परिणाम स्वरूप एक निश्चित बिन्दु पर पहुंचती है। मनुष्य के जीवन की प्रत्येक घटना - चक्र में आयी हुई प्रत्येक परिस्थिति किसी विगत कर्म का परिणाम है और वह कर्म - विपाक के विशिष्ट सिद्धान्त को निश्चित करता है। यह कोई एक ऐसी सामान्य घटना नहीं है जिसकी सर्वथा उपेक्षा कर दी जाय। इसलिये आपको अपने कष्टों के लिये संसार पर या अपने परिवार पर दोषारोपण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि व्यक्ति अपने कर्मो का ही फल भोगता है। आप अपने प्रासादा (महल) के निर्माण करने वाले शिल्पी स्वयमेव ही हैं। आप विश्वास कीजिये कि आप अपने मन को किसी अभिमत वस्तु पर नियन्त्रि...

YOGISM OR PHILOSOPHY

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  योगधर्म या दर्शन अब तक हम लोगों ने योग के धर्म का साथ तथा दर्शन के साथ सम्बन्धो की समीक्षा की है। अब यह निश्चय समझ लेना चाहिये कि योग इन दोनों से भिन्न है। विश्वास तथा आस्था की दृष्टि से यह धर्म नहीं कहा जा सकता। आप किसी भी धर्म के व्यक्ति हो सकते हैं और ऐसा होते हुए भी योग के अत्यन्त प्रेमी बन सकते हैं। वास्तव में योग एक सार्वभौम विश्व - धर्म है। योग को दृष्टि में धर्म एक विज्ञान है। यह ईसा के हजारों वर्ष पूर्व भारत में विकसित हो चुका था। यही प्राचीन योग - प्रणाली सम्पूर्ण धार्मिक क्रान्तियों की जननी रही है और सभी आध्यात्मिक एवं धार्मिक भावनाओं को प्रेरणा देती रही है। इसलिये यदि आप योग का अध्ययन करते हैं तो आप अपने धर्म का ही अध्ययन करते हैं और अपनी आस्था तथा धार्मिक भावनाओं को दृढ़ करते हैं तथा अपने धर्मग्रन्थों का तात्त्विक रहस्य उस योग के द्वारा स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। इसी तरह योग शिक्षा को दृष्टि में कोई दर्शन नहीं है। यह मानवीय बुद्धि के करामातों से बाँधा नहीं गया है और मानवीय बुद्धि के आधार पर टिका भी नहीं है। यह संत - महात्माओं के अनुसंधानों की आधार भित्ति पर स्थ...

UNIVERSAL YOGA

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सार्वभौम योग योग के अनेक पहलू है। सार्वभौम योग मूलतः योग को समझने की प्रेरणा देता है। जो सब प्रकार से इसे सम्यक्रूपेण परिपूर्ण करता है और जो परमात्मा से सम्यक् - रूप से सर्वधा एकात्म भाव के रूप में संयुक्त कर देता है। एक साधक या योगी व्यक्ति को परमात्मा से एकात्मभाव अवश्य स्थापित करना चाहिये अथवा व्यक्तित्व को सभी स्तरो पर बुद्धि , संवेग , इच्छा एवं क्रियाओं से तारतम्य स्थापित किये रहना चाहिये। जीवनमें सफलता प्राप्त करने के लिये मनुष्य को चारों दिशाओं में एक संतुलित एवं व्यापक दृष्टिकोण से अग्रसर होना चाहिये। असंतुलित यात्रा - क्रम किसी भी दिशा में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये सार्वभौम योग मनुष्य के जो चार स्वरूप होते हैं उनके कारणभूत चार योगों का सम्मिलित रूप उपस्थित करता है। इनमें से ज्ञानयोग (या बुद्धियोग) अनुमान या बुद्धि के अत्यन्त सूक्ष्म रहस्यो को प्रकट करता है, और दूसरा भक्तियोग (या उपासना - पद्धति) मनुष्य के भावों को उत्तेजित करता है और मनुष्यके व्यक्तित्व एवं साधना में शक्ति का सञ्चार करता है (और वह ज्ञानयोगकी ओर विशेष प्रेरणा देता है)। तीसरा राजयोग (या ध्यान या समाधिकी...

YOGA And Its VARIOUS PERSPECTIVES

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  योग और उसके विभिन्न दृष्टिकोण Paragraph 1 क्या आपने कभी यह सोचा है कि जब आपकी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण हो जायेंगी तो आप कैसा अनुभव करेंगे? उस समय किस सीमातक आपका मस्तिष्क संकल्पोंसे युक्त, संकल्पमुक्त अथवा मिश्रित स्थिति में रहेगा? आप क्षण - क्षण, दिन - दिन यह सोचते जाते हैं कि मेरी कितनी प्रगति हुई और कितनी होनी चाहिये। यद्यपि आपकी ये मान्यताएँ भी प्रतिक्षण बदलती जाती हैं, इतनेपर भी आप यह नहीं समझ पाते हैं कि 'आपका वास्तविक स्वरूप क्या है?' आप अपने मनमें यह सोचते हैं कि 'मेरा जीवन सदा असफल रहा है और मैं किसी भी मार्गमें सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। थोड़े से परिवर्तन के बाद फिर आप यह सोचते हैं कि की सभी करेंगे? जैसा पहले सोचते रहे वैसे आप सर्वथा नगण्य नहीं हैं। फिर से युक्त, आप यह देखते हैं कि आपने इतनी शक्ति अर्जित कर ली है कि आप प्राप्त हुए तथा प्राप्त होने वाले विघ्नों पर विजय प्राप्त कर कि मेरी सकते हैं। आप असम्भव और सम्भव वस्तुओं को अच्छी तरह आपकी समझ सकते हैं। इस पर आप देखेंगे कि आपके हृदय के अन्तर्गत ही असीम दुर्लभ पदार्थों तथा सीमाओं को प्राप्त रूप क्या करने की शक्ति सं...