UNIVERSAL YOGA
सार्वभौम योगयोग के अनेक पहलू है। सार्वभौम योग मूलतः योग को समझने की प्रेरणा देता है। जो सब प्रकार से इसे सम्यक्रूपेण परिपूर्ण करता है और जो परमात्मा से सम्यक् - रूप से सर्वधा एकात्म भाव के रूप में संयुक्त कर देता है। एक साधक या योगी व्यक्ति को परमात्मा से एकात्मभाव अवश्य स्थापित करना चाहिये अथवा व्यक्तित्व को सभी स्तरो पर बुद्धि , संवेग , इच्छा एवं क्रियाओं से तारतम्य स्थापित किये रहना चाहिये। जीवनमें सफलता प्राप्त करने के लिये मनुष्य को चारों दिशाओं में एक संतुलित एवं व्यापक दृष्टिकोण से अग्रसर होना चाहिये। असंतुलित यात्रा - क्रम किसी भी दिशा में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।इसलिये सार्वभौम योग मनुष्य के जो चार स्वरूप होते हैं उनके कारणभूत चार योगों का सम्मिलित रूप उपस्थित करता है। इनमें से ज्ञानयोग (या बुद्धियोग) अनुमान या बुद्धि के अत्यन्त सूक्ष्म रहस्यो को प्रकट करता है, और दूसरा भक्तियोग (या उपासना - पद्धति) मनुष्य के भावों को उत्तेजित करता है और मनुष्यके व्यक्तित्व एवं साधना में शक्ति का सञ्चार करता है (और वह ज्ञानयोगकी ओर विशेष प्रेरणा देता है)। तीसरा राजयोग (या ध्यान या समाधिकी पद्धति) मनुष्यकी इच्छा शक्ति को दृढ़ बनाता है और उसके मन या चित्तवृत्तियो को नियन्त्रित करने में सशक्त बनाता है और चौथा कर्मयोग (अर्थात् क्रिया करनेकी विधि) मनुष्य के अन्तहर्दय में निहित गत शक्तियों और उनके रहस्यों को उद्घाटित करता है और वह उसके मनः - शक्तिको बढ़ाता है तथा दिन - प्रति - दिन कर्तव्य कर्म के रहस्यों को जानते हुए उसकी कार्यकुशलता को बढ़ाता है।सार्वभौम या सम्पूर्ण योग इन चारों योगों - ज्ञानयोग ( बुद्धियोग ) , भक्तियोग , राजयोग एवं कर्मयोग को एक में बांधता है और इसी के साथ - साथ जो शेष अनेक प्रकीर्ण योग हैं, उन्हें भी वह समेट लेता है और इन सबको मिलाकर आत्म - साक्षात्कार या भगवत्प्राप्ति की ओर उन्मुख या प्रवृत्त होता है इससे भिन्न कोई अकेला सामान्य योग मनुष्य को किसी एक रास्तेपर अधवा असंतुलित रूप से आगे की ओर बढ़ाता है और जो अकेले किसी लक्ष्यको पूर्णरूपसे प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता है। किंतु सम्पूर्ण या सार्वभौम - योग साधकके लक्ष्य को प्राप्त करने में एक सुरक्षित और सुनिश्चित दिशा को प्राप्त कराता हुआ उसे महान् लक्ष्य को प्राप्त कराने में पूर्ण समर्थ होता है।
योगविद्या का आविर्भाव कब हुआ?
इतिहास की दृष्टि से यह निश्चय करना अत्यन्त कठिन है कि विश्व में योगविद्या का आविर्भाव कब और कहाँ से हुआ। वेदों में योग का उल्लेख प्राप्त है, इसलिये योग निश्चय ही बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। योगविद्या के प्रारम्भिक काल से उस समय का तात्पर्य नहीं है कि इसका अध्ययन अध्यापन कब से प्रारम्भ हुआ, बल्कि इसका तात्पर्य है चित्त की वृत्तियों का निरोध और आत्मसंयम का व्यावहारिक अभ्यास कब से प्रारम्भ हुआ? यही देखना है।
आइजक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त का आविष्कार मात्र किया था न कि वह उसका प्रयोक्ता भी था। ठीक इसी प्रकार योग के सम्बन्ध में भी समझना चाहिये कि उसके आविष्कारक और प्रचारक दूसरे लोग थे, किंतु ठीक - ठीक उसे प्रयोग में लाकर उसका उपयोग कर सिद्धि प्राप्त करने वाले योगी - जन दूसरे थे। इसलिये यह प्रश्न कि योग का आविर्भाव कब हुआ और किसने किया, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि योग - साधना एवं बुद्धि के रहस्यों को उद्घाटित कर आत्मा के स्वरूप का साक्षात्कार कब और किस के द्वारा हुआ? यह प्रश्न महत्त्व का है। बस इतना जान लेना पर्याप्त है कि योग कई हजार वषों से संसार में अपना कार्य कर रहा है। विश्व के सभी धेर्मो को अनुप्राणित किया और आत्मबल प्राप्त करा कर परमोन्नति प्राप्त करने की दिशा मे अग्रसर किया।
इस प्रकार की यौगिक क्रान्तियां समय - समय पर बार-बार। ईसा के ' पर्वत पर के उपदेश जो अहिंसा निश्चलता सरलता आत्म अनुसंधान या आत्मानुभव से सम्बन्धित थे, वे योगविद्या से प्रभावित थे। विश्व के सभी धर्म अपने मूल में एक ही तत्त्व को सँजोये हुए हैं। संसार के भीषण क्लेशों से मुक्त होने के लिये योग का आश्रयण ही मुख्य है, उसके लिये हिन्दू , ईसाई , मुसलमान आदि विभिन्न धर्मो के दीक्षाओं की आवश्यकता नहीं। योग के सहारे आप अपने अन्तर्हदय के रहस्यों को जान सकते हैं और आप देखेंगे कि सभी धर्मो का मूल उसी में संनिहित है। सभी धर्म अपने मूल में एक हैं और वे सब - के - सब वही हैं।
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