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THE PLACENTA And PARA SIDDHIS OBTAINED From YOGA PART(4)

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  इक्कीसवीं सिद्धि उदानवायु के जीतने से जल, कीचड़ और कण्टक आदि पदार्थो का योगी को स्पर्श नहीं होता और मृत्यु भी वशीभूत हो जाती है। ऊर्ध्व गमनकारी कण्ठ से लेकर सिर तक व्यापक जो वायु है वही 'उदानवायु' कहलाता है। यह ऊर्ध्व गमनकारी और होने से उसमें संयम करने वाले योगी का शरीर जल, पङ्क कण्टक का आदि से नष्ट नहीं होता। उदान वायु से सब स्नायुओं की क्रियाएँ नियमित रहती हैं। मस्तिष्क का स्वास्थ्य ठीक रहकर चेतन की क्रिया बनी रहती है। इसके अतिरिक्त उदानवायु से प्राणमय कोश सहित सूक्ष्म शरीर पर आधिपत्य बना रहता है। अतएव उदानवायु के जय से योगी इच्छानुसार शरीर से प्राणोत्क्रमण रूप इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है। जैसे भीष्म पितामह ने उत्तरायण सूर्य आने पर ही देहत्याग किया था। बाईसवीं सिद्धि समान वायु को वश करने से योगी का शरीर ज्योतिर्मय हो जाता है। नाभि के चारों ओर दूर तक व्यापक रहकर समता को प्राप्त हुआ जो वायु जीवनी - क्रिया को साम्यावस्था में रखता है, उस वायु को 'समानवायु' कहते हैं। इस शरीर की समानता का इस वायु से प्रधान सम्बन्ध है। शारीरिक तेज शक्ति ही जीवनी क्रिया को साम्याव...

THE PLACENTA And PARA SIDDHIS OBTAINED From YOGA PART(3)

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ग्यारहवीं सिद्धि चन्द्रमा में संयम करने से नक्षत्र व्यूह का ज्ञान होता है ज्योतिष का सिद्धान्त है कि जितने ग्रह हैं उन सबमें चन्द्र एक राशि पर सबसे बहुत ही कम समय तक रहता है। इससे प्रत्येक तारा व्यूह रूपी राशि की आकर्षण - विकर्षण शक्ति के साथ चन्द्र का अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः उसी शक्ति के अवलम्बन से नक्षत्रों का पता लगाने में चन्द्र की सहायता सुविधाजनक है। बारहवीं सिद्धि ध्रुव में संयम करने से ताराओं की गतिका पूर्ण ज्ञान होता है। ध्रुव लोक हमारे सौर्य जगत से इतना दूरवर्ती है कि उस दूरता के कारण हम लोग उसको स्थिर ही देख रहे हैं। जैसे दूरवर्ती देश में स्थित किसी अग्नि शिखा को उसके स्वभाव से ही चञ्चल होने पर भी हम एक अचञ्चल ज्योतिर्मय रूपवाली देखते हैं, वैसे ही ध्रुव के चलने - फिरने पर भी उसके चलने का हमारे लोक से कोई सम्बन्ध न रहने के कारण और परस्पर में अगणित दूरत्व होने से हम लोग ध्रुव को अचञ्चल ध्रुव ही निश्चय करते हैं। तेरहवीं सिद्धि नाभिक चक्र में संयम करने पर योगी को शरीर के समुदाय का ज्ञान होता है। शरीर के सात स्थानों में सात कमल अर्थात् चक्र हैं, जिनमें छः चक्रों में साधन क...

THE PLACENTA And PARA SIDDHIS OBTAINED From YOGA PART(2)

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पहली सिद्धि व्युत्थान - संस्कारों का लय होकर जो निरोध - संस्कारों का प्रकट होना है तथा निरोध के क्षण में जो चित्त का धर्मी रूप में दोनों के साथ अन्वय है उसे 'निरोध परिणाम - सिद्धि' कहते हैं। निरोध - संस्कार से अन्तः करण की शान्ति प्रवाहित होती है। नाना विषयों के संस्कार से जो अन्तः करण की चञ्चलता होती है, उस 'सर्वार्थता का क्षय और एकाग्रता का उदय ही अन्तः करण में समाधिका परिणाम है। तब 'शान्त प्रत्यय' अर्थात् एकाग्रता परिणाम में सिद्धि की इच्छा रखने वाले योगी का अन्तः करण तरङ्ग रहित जलाशय के समान वृत्तियों की सर्वार्थताओं से रहित होकर शान्त हो जाता है, इसी अवस्था का नाम 'शान्त प्रत्यय' है, और उदित प्रत्यय, अर्थात् शान्त प्रत्यय के साथ ही सिद्धियों की इच्छा जनित वासना बीज के वेग से सिद्धि के उन्मुख योगी का अन्तः करण रहता है, इसी अवस्था का नाम 'उदित प्रत्यय' है। इन दोनों प्रत्ययों की समानतारूप चित्त की जो स्थिति है वही 'एकाग्रता परिणाम' है। इससे स्थूल, सूक्ष्म भूत और इन्द्रियों में भी 'धर्म परिणाम', 'लक्षण परिणाम' और 'अवस्था ...

THE PLACENTA And PARA SIDDHIS OBTAINED From YOGA

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  योग से प्राप्त होने वाली अपरा एवं परा सिद्धियाँ सर्वथा सिद्धि विहीन व्यक्ति की कहीं कोई प्रतिष्ठा नहीं होती और विशेष सिद्धियों के स्वाभाविक निधान होने के कारण परमेश्वर सर्व समर्थ एवं शक्तिमान होता है और उसकी सर्वत्र पूजा - प्रतिष्ठा होती है। अतः उच्च कोटि का ज्ञान - विज्ञान, जीवन मुक्ति एवं दिव्य शक्ति आदि की सिद्धियाँ सब को अभीष्ट होती है। अणिमादि अष्टविध सिद्धियाँ तो प्रसिद्ध ही हैं। ये सिद्धियाँ यदि अहंकार आदि को जन्म देती हैं और साधक अपनी प्रतिष्ठा के लिये इनका चमत्कार आदि के रूप में प्रदर्शन करता है तो ये ही सिद्धियाँ उसके मोक्ष आदि परा सिद्धियों की प्राप्ति में अन्तराय बन जाती हैं, उसके पतन का कारण बन जाती है, साथ ही इन सिद्धियों की शक्ति भी नष्ट हो जाती है। अतः सिद्धि प्राप्त साधक को इनका उपयोग यदि आवश्यक हो तो यथा सम्भव परोपकार के कार्यों तथा जीवमात्र के कल्याण के लिये करना चाहिये और इन्हें सर्वथा गुप्त रखते हुए निरभिमान पूर्वक आगे की साधना करते रहना चाहिये। शरीर में इन्द्रियों तथा चित्त में विलक्षण परिणाम उत्पन्न होने अर्थात् इनकी प्रकृति में विलक्षण परिवर...

YOGA - REMEDIES For REMEDIES And REMEDIES

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योग - साधना के विघ्न और उन्हें दूर करने के उपाय समाधी क्रिय माणे तु विघ्ना न्यायान्ति वै बलात्। समाधिकाल में विघ्न बलपूर्वक आने लगते हैं। योगी को चाहिये कि उन विघ्नों का धीरे - धीरे त्याग करे। भगवान् पतञ्जलि ने योग दर्शन में कहा है - व्याधि स्त्यान संशय प्रमादालस्या विरतिभ्रान्ति दर्शना लव्य भूमि कत्वानव स्थित त्वानि चित्त विक्षेपास्तेऽन्तरायाः। व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व यह नौ चित्त के विक्षेप है, यही अन्तराय (विघ्न) कहलाते हैं। ये अन्तराय क्या हैं और किस प्रकार इनसे छुटकारा मिलता है, इस बात को योगमार्ग में प्रवेश करने के पहले जानना  आवश्यक है। शरीर को धारण करने में समर्थ होने के कारण धातु नाम को प्राप्त हुए वात, पित्त और कफ की न्यूनाधिकता, खाये तथा पिये हुए आहार - पदार्थ के परिणाम स्वरूप रस की न्यूनाधिकता और मनसहित एकादश इन्द्रियों के बल की न्यूनाधिकता को व्याधि अथवा रोग कहते हैं। व्याधि होने पर चित्तवृत्ति उसमें अथवा उसे दूर करने के उपायों में लगी रहती है। इससे वह योग में प्रवृत नहीं हो सकती। इसी कारण ...

SEVEN ROLES OF YOGA KNOWLEDGE

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योग ज्ञान की सप्त भूमिकाएं प्राचीन काल में अनेकों महर्षियों ने अध्यात्म बल को प्राप्त कर परम प्राप्तव्य वस्तु का लाभकर जिस सर्वोत्कृष्ट स्थिति के भोक्ता बनने का सौभाग्य प्राप्त किया था, उस स्थिति को पाने के लिये जिसके हृदय में प्रयत्नशील होने की उत्कट इच्छा जाग्रत हुई है, उसी मनुष्य में मनुष्यत्व है। अन्यथा केवल मनुष्य - देह धारण करने से ही वास्तविक मनुष्यत्व नहीं आता। परंतु परम दयामय देवेश ने मनुष्यको जो - जो उत्तम साधन प्रदान किये हैं, उन - उन साधनों की सर्वोत्तम शुद्धि करते हुए मनुष्यत्व की अपेक्षा अत्यन्त श्रेष्ठ गुणयुक्त देवत्व और उससे भी उच्चतम ईशत्व को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करने वाला वीर साधक ही मनुष्य नाम पाने के योग्य है। इस जगत्का प्रत्येक अणु - सजीव या निर्जीव प्रतिक्षण उत्तरोत्तर शुद्ध होकर विकास मार्ग में गतिशील हो रहा है। इसी के अनुसार मानव प्राणी के भीतर भी अन्तिम सर्वोत्कृष्ट स्थिति - मुक्ति स्थिति प्राप्त करने की अभिलाषा ज्ञात या अज्ञात भाव से रहती ही है। भगवती श्रुति कहती हैं — 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः।' इससे यह सिद्ध है कि ज्ञान प्राप्त हुए बिना ...