THE PLACENTA And PARA SIDDHIS OBTAINED From YOGA PART(3)

ग्यारहवीं सिद्धि


चन्द्रमा में संयम करने से नक्षत्र व्यूह का ज्ञान होता है ज्योतिष का सिद्धान्त है कि जितने ग्रह हैं उन सबमें चन्द्र एक राशि पर सबसे बहुत ही कम समय तक रहता है। इससे प्रत्येक तारा व्यूह रूपी राशि की आकर्षण - विकर्षण शक्ति के साथ चन्द्र का अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः उसी शक्ति के अवलम्बन से नक्षत्रों का पता लगाने में चन्द्र की सहायता सुविधाजनक है।

बारहवीं सिद्धि

ध्रुव में संयम करने से ताराओं की गतिका पूर्ण ज्ञान होता है। ध्रुव लोक हमारे सौर्य जगत से इतना दूरवर्ती है कि उस दूरता के कारण हम लोग उसको स्थिर ही देख रहे हैं। जैसे दूरवर्ती देश में स्थित किसी अग्नि शिखा को उसके स्वभाव से ही चञ्चल होने पर भी हम एक अचञ्चल ज्योतिर्मय रूपवाली देखते हैं, वैसे ही ध्रुव के चलने - फिरने पर भी उसके चलने का हमारे लोक से कोई सम्बन्ध न रहने के कारण और परस्पर में अगणित दूरत्व होने से हम लोग ध्रुव को अचञ्चल ध्रुव ही निश्चय करते हैं।

तेरहवीं सिद्धि

नाभिक चक्र में संयम करने पर योगी को शरीर के समुदाय का ज्ञान होता है। शरीर के सात स्थानों में सात कमल अर्थात् चक्र हैं, जिनमें छः चक्रों में साधन करके सिद्धि प्राप्त होने पर सातवें चक्र में पहुंचने से मुक्ति प्राप्त होती है। षट्चक्रों में से नाभि के पास स्थित जो तीसरा चक्र है, उसमें संयम करने से शरीर में किस प्रकार का पदार्थ किस प्रकार से है; वात, पित्त और कफ - ये तीन दोष किस रीति से हैं; चर्म, रुधिर, मांस, नख, हाड़, चर्बी और वीर्य - ये सात घातुएँ किस प्रकार से हैं, नाड़ी आदि कैसी - कैसी हैं - इन सबका ज्ञान हो जाता है।

चौदहवीं सिद्धि

कण्ठ के कूप में संयम करने से भूख और प्यास निवृत्त हो जाती है। मुख के भीतर उदर में वायु और आहार आदि जाने के लिये जो कण्ठ छिद्र है, उसी को कण्ठ कूप' कहते हैं। यहीं पर पाँचवाँ चक्र स्थित है। इसी से क्षुत्पिपासा की क्रिया का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

पंद्रहवीं सिद्धि

कूर्म नाड़ी में संयम करने से स्थिरता होती है। पूर्वोक्त कण्ठ कूप में कच्छप आकृति की एक नाड़ी है, उसको कूर्मनाड़ी कहते हैं। उस नाड़ी से शरीर की गतिका विशेष सम्बन्ध है। इसी से यहाँ संयम करने पर शरीर स्थिरता को प्राप्त हो जाता है। जैसे सर्प अथवा गोह अपने - अपने बिल में जाकर चञ्चलता और क्रूरता को त्याग देते हैं, वैसे ही योगी का मन इस कूर्म नाड़ी में प्रवेश करते ही अपनी स्वाभाविक चञ्चलता का त्याग कर देता है।

सोलहवीं सिद्धि

कपाल की ज्योति में संयम करने से योगी को सिद्ध गणों के दर्शन होते है। मस्तक के भीतर कपाल के नीचे एक छिद्र, उसे ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं। उस ब्रह्मरन्ध में मन ले जाने से एक त्याग कर देता है। ज्योति का प्रकाश नजर आता है, उसमें संयम करने से योगी को सिद्ध और महात्माओ के दर्शन होते हैं। जीव कोटि से उपराम होकर सृष्टि के कल्याणार्थ ऐसी शक्तियों को धारण करके एक लोक से लोकान्तर में विचरण करने वालों को ही सिद्ध या महात्मा कहा जाता है, जो चतुर्दश भुवनों में ही विराजते हैं।

सत्रहवीं सिद्धि

प्रातिभ में संयम करने से योगी को सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। योग साधन करते - करते योगियों को एक तेजोमय तारा ध्यान अवस्था में दिखलायी पड़ता है, उसी तारे का नाम 'प्रातिभ' है। चञ्चल बुद्धि मनुष्य उस तारे का दर्शन नहीं कर सकते। योगी की बुद्धि जब शुद्ध होकर ठहरने लगती है, तभी उस भाग्यवान् योगी को 'प्रातिभ' के दर्शन होते हैं। इसी प्रातिभ को स्थिर कर उसमें संयम करने से योगी ज्ञान - राज्य की सब सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है।

अठारहवीं सिद्धि

हृदय में संयम करने से योगी को चित्त का ज्ञान होता है। चतुर्थ चक्र का नाम हत्कमल है। इससे अन्तः करण का एक विलक्षण सम्बन्ध है। चित्त में नये और पुराने सब प्रकार के संस्कार रहते हैं, चित्त के नचाने से ही मन नाचता है। चित्त का पूर्ण स्वरूप महा माया की माया से जीव पर प्रकट नहीं होता है। जब योगी हत्कमल में संयम करता है, तब वह अपने चित्त का पूर्ण ज्ञाता बन जाता है।

उन्नीसवीं सिद्धि

बुद्धि पुरुष से अत्यन्त पृथक् है। इन दोनों के अभिन्न ज्ञान से भोग की उत्पत्ति होती है। बुद्धि परार्थ है, उससे भिन्न स्वार्थ है। उसमें अर्थात् अहंकार शून्य चित्प्रतिबिम्ब में संयम करने से पुरुष का ज्ञान होता है। बुद्धि - पुरुष का जो परस्पर प्रतिबिम्ब - सम्बन्ध से अभेद - ज्ञान है, वही पुरुष निष्ठ भोग कहलाता है। बुद्धि दृश्य होने से उसका यह भोग रूप प्रत्यय परार्थ यानी पुरुष के लिये ही है। इस परार्थ से अन्य जो स्वार्थ प्रत्यय है यानी जो बुद्धि प्रतिबिम्बित चित्सत्ता को अवलम्बन करके चिन्मात्र रूप है, उसमें संयम करने से योगी को नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव पुरुष का ज्ञान हो जाता है। बुद्धि के मलिन भाव से रहित शुद्ध भावमय, जैव अहंकार से शून्य, आत्म ज्ञान से भरी हुई जो चिद्भाव की दशा है उसी को जानकर उसमें जब योगी संयम करता है, तब उसको पुरुष के स्वरूप का बोध हो जाता है। इस परा सिद्धि के पाने पर योगी को प्रातिभ, श्रावण, वेदन, आदर्श, आस्वाद और वार्ता नामक षट सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है।
षट सिद्धियों का फल - 'प्रातिभ सिद्धि से योगी को अतीत, अनागत, विप्रकृष्ट और सूक्ष्माति सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान हो जाता है, 'श्रावण सिद्धि से योगी को दिव्य श्रवण ज्ञान की पूर्णता यानी प्रणव ध्वनि का अनुभव होता है।' वेदन सिद्धि' से योगी को दिव्य स्पर्श ज्ञान की पूर्णता होती है। 'आदर्श सिद्धि' से दिव्य दर्शन की पूर्णता, 'आस्वाद सिद्धि से दिव्य रसज्ञान की पूर्णता और 'वार्ता सिद्धि से दिव्य गन्ध ज्ञान की पूर्णता स्वतः प्राप्त हो जाती है। ये सब समाधि में विघ्न कारक हैं, परंतु व्युत्थान दशा के लिये सिद्धियाँ है।

बीसवीं सिद्धि

बन्धन का जो कारण है उसके शिथिल हो जाने से और संयम द्वारा चित्त की प्रवेश - निर्गम मार्ग नाड़ी के ज्ञान से चित्त दूसरे शरीर में प्रवेश कर सकता है। चञ्चलता को प्राप्त हुए अस्थिर मन का शरीर में द्वन्द्व तथा आसक्ति जन्य बन्धन है, समाधि प्राप्ति से क्रमशः स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर का यह बन्धन शिथिल हो जाता है। संयम की सहायता से चित्त के गमना गमन मार्गीय नाड़ी ज्ञान से स्वतः सूक्ष्म शरीर को कहीं पहुँचा देने का नाम प्रवेश - क्रिया है और पुनः उस सूक्ष्म शरीर को ले आने का नाम निर्गम - क्रिया है। इन दोनों का जब योगी को बोध हो जाता है तब योगी जब चाहे तब अपने शरीर से निकलकर दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकता है। इसी का नाम 'परकाया - प्रवेश' है।
 जारी रहेगा..........................
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ENGLISH TRANSLATION

ELEVENTH ACCOMPLISHMENT


By keeping restraint in the moon, one gets to know the constellation of astrology. Astrology has the theory that out of all the planets, the moon stays on one zodiac for a very short period of time. With this, each star has a very close relationship with the attraction of the zodiac form - distraction power. Therefore, it is convenient to help Chandra in finding the constellations with the help of the same power.

TWELFTH ACCOMPLISHMENT

By restraint in the pole, full knowledge of the stars is complete. Dhruva Lok is so far away from our solar world that due to that distance, we are seeing him stable. Just as we see a fire crest located in a far off country by its nature, even though it is of a strange astrological form, similarly, it does not have any relation with our people even when the pole is moving - and is incomparable to each other. Due to the distance, we decide the pole to be a non-permanent pole.

THIRTEENTH ACCOMPLISHMENT

The yogi has knowledge of the community of the body when he is restrained in the nucleus cycle. In the seven places of the body, there are seven lotuses, ie chakras, in which the attainment of accomplishment by means of six chakras attains liberation by reaching the seventh chakra. The third chakra which is located near the navel out of the six circles, what kind of substance is there in the body by restraining it; Vata, Pitta and Kapha - how are these three doshas; Skin, blood, meat, fingernails, bones, fat and semen - how are these seven ghats, how are pulse, etc. - how are they all known.

FOURTEENTH ACCOMPLISHMENT

Restrain hunger and thirst due to restraint in the follicle of the gorge. The gush hole which is to go inside the mouth, the air and the food, etc., is called the 'gorge well'. This is where the fifth cycle is located. From this, there is a close relation of the action of Kshatupipasa.

FIFTEENTH ACCOMPLISHMENT

Restraint in the Koram Nadi leads to stability. In the aforesaid gorge well, there is a pulse of a tortoise shape, it is called the Kurmanadi. The gait of the body has a special relation with that pulse. With this, the body attains stability after being restrained here. Just as a serpent or a Goha renounce their spontaneity and cruelty in their own bill, similarly the Yogi's mind renounces its natural spontaneity as soon as it enters this Kurma Nadi.

SIXTEENTH ACCOMPLISHMENT

By exercising restraint in the light of the skull, the yogi gets to see the siddha gana. A hole under the skull inside the forehead is called Brahmarandhra. Carrying mind in that Brahmarandha makes one give up. The light of the flame is seen, by exercising restraint in it, the yogi has the vision of the Siddha and the Mahatmas. Those who have wandered from one world to the other by wearing such powers for the welfare of the world after being above the living being, are called Siddha or Mahatma, who reside only in the four-sided bhuvanas.

SEVENTEENTH ACCOMPLISHMENT

By exercising restraint in the beginning, the yogi gets complete knowledge. While doing yoga tools, a bright star is seen in the meditative state of the yogis, the name of that star is 'Pratibha'. A little intelligent person cannot see that star. When the intellect of a yogi starts to become pure, then that lucky yogi has the vision of 'Pratibha'. By stabilizing this talent, a yogi can attain all the attainments of the state of knowledge by controlling it.

EIGHTEENTH ACCOMPLISHMENT

By exercising self-control in the heart, the yogi has knowledge of the mind. The fourth cycle is named Hatkamal. This has a unique relation to conscience. All kinds of new and old sanskars remain in the mind, the mind dances only through the dancing of the mind. The full form of the mind does not appear on the creature from the illusion of Maha Maya. When a yogi is restrained in hatkamal, he becomes a complete knower of his mind.

NINETEENTH ACCOMPLISHMENT

Wisdom is very different from a man. Indulgence in these two gives birth to enjoyment. Wisdom is altruistic, different than selfishness. In him, ie, restraint in the ego zero chitpratibimb, the man has knowledge. Wisdom - The image of a man, which is impenetrable with relationship - knowledge is the same, that is called male devotion. Due to the presence of intelligence, this enjoyment form is for the suffix altruism ie man. Other than this altruism, which is selfish suffix ie, which is a meditative form by embracing the intellect reflecting Chitsatta, by restraining in it, the yogi becomes eternally pure, knowledge of Buddha, free nature man. Pure yogic without any sense of wisdom, void of bio-ego, full of self-knowledge, which is the state of the mind, knowing that only when a yogi is restrained in it, then he becomes aware of the nature of man. On attaining this para-siddhi, the yogi gets the six perfections called Pratibha, Shravan, Vedan, Adarsh, Aaswad and Varta.
The fruit of the six Siddhis - 'Yogi gets knowledge of past, non-existent, illustrious and subtle subtle substances by virtue of Pratibha Siddhi,' With Shravan Siddhi the Yogi experiences the perfection of divine auditory knowledge i.e. Pranav Sound. ' Vedan Siddhi leads to perfection of divine tactile knowledge to the yogi. The perfection of divine philosophy through 'ideal perfection', the perfection of divine sensation by 'tasty accomplishment' and the perfection of divine smell knowledge are attained automatically by 'dialogue fulfillment'. All these are disturbing factors in samadhi, but there are principles for derivative condition.

TWENTIETH ACCOMPLISHMENT

Due to the relaxation of the reason for bonding and the penetration of the mind by restraint - with the knowledge of the output path pulse, the mind can enter another body. The unsteady mind in the mind of dilemma, conflict in the body And attachment is a bondage, by attaining samadhi, this bonding of the subtle body from the gross body becomes relaxed. With the help of sobriety, the name of sending the subtle body somewhere along the path of motionless pulse knowledge of the mind is entry - action and the name of bringing that subtle body back again is exit - action. When the yogi becomes aware of these two, then the yogi can leave his body and enter the body of another whenever he wants. This is the name of 'Parakaya - Entrance'.
TO BE CONTINUE..........................
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