THE PLACENTA And PARA SIDDHIS OBTAINED From YOGA PART(4)
उदानवायु के जीतने से जल, कीचड़ और कण्टक आदि पदार्थो का योगी को स्पर्श नहीं होता और मृत्यु भी वशीभूत हो जाती है। ऊर्ध्व गमनकारी कण्ठ से लेकर सिर तक व्यापक जो वायु है वही 'उदानवायु' कहलाता है। यह ऊर्ध्व गमनकारी और होने से उसमें संयम करने वाले योगी का शरीर जल, पङ्क कण्टक का आदि से नष्ट नहीं होता। उदान वायु से सब स्नायुओं की क्रियाएँ नियमित रहती हैं। मस्तिष्क का स्वास्थ्य ठीक रहकर चेतन की क्रिया बनी रहती है। इसके अतिरिक्त उदानवायु से प्राणमय कोश सहित सूक्ष्म शरीर पर आधिपत्य बना रहता है। अतएव उदानवायु के जय से योगी इच्छानुसार शरीर से प्राणोत्क्रमण रूप इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है। जैसे भीष्म पितामह ने उत्तरायण सूर्य आने पर ही देहत्याग किया था।
बाईसवीं सिद्धि
समान वायु को वश करने से योगी का शरीर ज्योतिर्मय हो जाता है। नाभि के चारों ओर दूर तक व्यापक रहकर समता को प्राप्त हुआ जो वायु जीवनी - क्रिया को साम्यावस्था में रखता है, उस वायु को 'समानवायु' कहते हैं। इस शरीर की समानता का इस वायु से प्रधान सम्बन्ध है। शारीरिक तेज शक्ति ही जीवनी क्रिया को साम्यावस्था में रखती है। इसीलिये समानवायु को संयम से जीत लेने से योगी तेजःपुञ्ज हो जाता है।
तेईसवीं सिद्धि
कर्ण - इन्द्रिय और आकाश के आश्रयाश्रयि रूप सम्बन्ध में संयम करने से योगी दिव्य श्रवण को प्राप्त होता है। समस्त श्रोत्र और शब्दों का आधार आकाश है। जब तक कान के साथ आकाश का सम्बन्ध रखा जाता है, तब तक शब्द सुनायी पड़ते, अन्यथा नहीं। इससे कान और आकाश का जो आश्रयाश्रयि रूप सम्बन्ध है, उसमें संयम करने से योगी सूक्ष्म - सूक्ष्म छिपे हुए से अति छिपे हुए, दूरवर्ती - से - दूरवर्ती और नाना प्रकार के दिव्य शब्दों को श्रवण कर सकता है।
चौबीसवीं सिद्धि
शरीर और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से और लघु यानी हलकी रुई - जैसे पदार्थ की धारणा से आकाश में गमन हो सकता है। आकाश और शरीर का व्यापक और व्याप्य रूप से सम्बन्ध है। आकाश सब भूतों से हलका है और सर्वव्यापी है, इसलिये योगी जब आकाश और शरीर के सम्बन्ध में संयम करता है और उस समय लघुता के विचार से रुई आदि हलके - हलके पदार्थो की धारणा भी रखता है, तब इस क्रिया से उसमें हलकेपन की सिद्धि हो जाती है।
पचीसवीं सिद्धि
शरीर से बाहर जो मन की स्वाभाविक वृत्ति है उसका नाम महाविदेह' धारणा है, उसके द्वारा प्रकाश के आवरण का नाश हो जाता है। स्थूल शरीर से बाहर शरीर के आश्रयी की अपेक्षा न रखने वाली जो मन की वृत्ति है उसे 'महाविदेह' कहते हैं। उसीसे ही अहंकार का वेग दूर होता है। उस वृत्ति में जो योगी संयम करता है, उससे प्रकाश का ढकना दूर हो जाता है। जब तक शरीर का अहंकार रहता है, तब तक मन की बाह्य वृत्ति रहती है, परंतु जब शारीरिक अहंकार को त्याग कर स्वतन्त्र- भाव से मन की वृत्ति बाहर रहती है, तभी योगी का अन्तः करण मल रहित और निःसङ्ग रहता है। शरीर से लगी हुई मन की जो बाहरी वृत्ति है उसका नाम 'कल्पिता' है। परंतु शरीर की अपेक्षा न रखकर देहाध्यास से रहित जो मन की स्वाभाविकी और निराश्रयी बाहरी वृत्ति है वही अकल्पित है। कल्पित को छोड़कर अकल्पित जो महा विदेह वृत्ति का साधन किया जाता है, उसके सिद्ध होने पर प्रकाश स्वरूप बुद्धि का पूर्ण विकास हो जाता है। तब अहंकार से उत्पन्न हुए क्लेश, कर्म और कर्मफल - इनके सम्बन्ध से साधक मुक्त हो जाता है तथा रज - तम का आवरण हट जाता है, जिससे योगी अपने अन्तः करण को यथेच्छ ले जाने की सिद्धि को प्राप्त करता है।
छब्बीसवीं सिद्धि
पञ्च तत्त्वों के स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थवत्त्व - ये पाँच अवस्था विशेष हैं, इनमें संयम करने से भूतों पर जय लाभ होता है। भूतों की 'स्थूल - अवस्था' वह है जो दृष्टि गोचर हुआ करती है। ‘स्वरूपावस्था' वह है जो स्थूल में गुण रूप से अदृष्ट हो। जैसे तेज में उष्णता है। 'सूक्ष्मावस्था' तन्मात्राओं की है। 'अन्वयावस्था' व्यापक सत्त्व, रज और तमो गुण की है और पञ्चम 'अर्थवत्त्वावस्था' फलदायक होती है। जब योगी पञ्च भूतों की इन अवस्थाओं में संयम द्वारा उनको जय कर लेता है तब प्रकृति अपने - आप उस योगी के अधीन हो जाती है। जैसे गौ अपने - आप ही बच्चे को दूध पिलाया करती है, वैसे ही पञ्च भूत के जय से प्रकृति वशीभूत हो जाने पर वह प्रकृति माता अपने - आप ही उस योगी की सेवा में तत्पर हो जाती है।
अष्ट सिद्धियाँ - भूत जयानन्तर अणिमादि अष्ट सिद्धि', सिद्धियों का प्रकाश, शरीर - सम्बन्धी सब सम्पत्तियों की प्राप्ति और शरीर के रूपादि धर्मो का अनभिघात होता है। अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व और ईशित्व - ये अष्ट सिद्धियाँ हैं। जब योगी इच्छा करते ही अपने शरीर को सूक्ष्म अणु से भी सूक्ष्मतर कर लेता है तब उसे 'अणिमासिद्धि' कहते हैं। लघिमा सिद्धि' उसको कहते हैं- कि जब योगी इच्छा करते ही अपने स्थूल शरीर को हलके से भी हलका कर सके और आकाश के अवलम्बन से जहाँ चाहे वहीं जा सके। 'महिमा सिद्धि' वह है कि जब योगी इच्छा करते ही अपने शरीर को चाहे जितना बढ़ा सके। 'गरिमा सिद्धि' वह कहलाती है कि जब योगी इच्छा करते ही अपने शरीर को चाहे जितना भारी - से - भारी कर सके। 'प्राप्ति सिद्धि' वह कहलाती है कि जब योगी इच्छा करते ही एक लोक से लोकान्तर मे यानी किसी ग्रह, उपग्रह, सूर्य या किसी महासूर्य में जहाँ चाहे वहीं पहुँच सके। 'प्राकाम्य सिद्धि' वह है कि जब योगी जिस किसी पदार्थ की इच्छा करे तभी वह पदार्थ उसको प्राप्त हो जाय, अर्थात् त्रिलोक मे उसको अप्राप्त कोई भी पदार्थ न रहे। वशित्व सिद्धि' वह कहलाती है कि जिससे योगी के वश में समस्त पञ्च भूत और सम्पूर्ण भौतिक पदार्थ आ जाते है। और वह जैसे चाहता है वैसे ही पञ्च भूतों से काम ले सकता है। वह स्वयं किसी के भी वश में नहीं होता। ईशित्व सिद्धि' उसको कहते हैं कि जब योगी भूत और भौतिक पदार्थो की उत्पत्ति, स्थिति और लय करने की शक्ति को प्राप्त हो जाता है, यदि वह नवीन सृष्टि को करना चाहे तो वह भी आंशिक रूप से कर सकता है। ये ही अष्ट सिद्धियाँ है। इन सिद्धियों के साथ - साथ योगी को रूप, लावण्य, बल और वज्र तुल्य दृढ़ता - ये सब काया सम्पत्तियां भी मिल जाती है।
सत्ताईसवीं सिद्धि
ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय और अर्थवत्त्व नामक इन्द्रियों की पाँच वृत्तियों में संयम करने से इन्द्रियों का जय होता है। सामान्य और विशेष रूप से शब्दादि जितने विषय है वे सब बाहरी विषय ग्राह्य कहलाते हैं, उन ग्रहण करने योग्य विषयों में जो इन्द्रियों की वृत्ति जाती है उस वृत्ति को 'ग्रहण' कहते हैं। किसी रीति से बिना विचारे विषय जब अकस्मात् गृहीत हो जाते है, तब मन का उसमें प्रथम विचार ही 'स्वरूप वृत्ति' है। उस अवस्था में जो अहङ्कार का सम्बन्ध रहता है, वह अहङ्कार मिश्रित भाव ही 'अस्मिता वृत्ति' कहा जाता है। फिर बुद्धि द्वारा उस स्वरूप के विचार को यानी जब बुद्धि सत्या सत्य, सामान्य और विशेष का विचार करने लगती है तब उस वृत्ति को 'अन्वय' कहते हैं। नाना विषयों को प्रकाश करने वाली, स्थिति शील, अहङ्कार के साथ सब इन्द्रियों में व्यापक, बहकी हुई जो वृत्ति है वही पञ्चम 'अर्थवत्त्व वृत्ति कहलाती है। इन इन्द्रियों की पाँचों वृत्तियों में संयम करके इन्हें अपने अधीन कर लेने से इन्द्रिय गण का पूर्ण जय होता है।
इन्द्रिय जय का फल - इन्द्रिय जय के अनन्तर मनोजवित्व, विकरण भाव और प्रधान जय की सिद्धियाँ योगी को स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। मन की गति के समान शरीर की उत्तम गति की प्राप्ति को ‘मनोजवित्व' कहते हैं, अर्थात् मन की तरह शीघ्र ही अनेक योजन व्यवहित देश में गमन करने की शरीर में सामर्थ्य होने का नाम 'मनोजवित्वं' है। शरीर के सम्बन्ध को त्याग कर जो इन्द्रियों की वृत्तिका प्राप्त करना है उसे विकरण भाव' कहते हैं, अर्थात् जिस देश, काल या विषयों में अभिलाषा हो, शरीर के बिना ही चक्षुरादि इन्द्रियों से गति प्राप्त होने का नाम 'विकरण भाव' है। प्रकृति के विकारों के मूल कारण को जय करने का नाम 'प्रधान जयत्व' है, जिससे सर्व वशित्व प्राप्त होता है। ये सिद्धियाँ स्वतः मिलती है।
अट्ठाईसवीं सिद्धि
बुद्धि और पुरुष में पार्थक्य - ज्ञान सम्पन्न योगी को सर्व भावाधिष्ठा तृत्व और सर्वज्ञा तृत्व प्राप्त होता है। जब अन्तः करण की ऐसी निर्मल अवस्था होती है, तब अपने - आप परमात्मा का शुद्ध प्रकाश उसमें प्रकाशित होने लगता है, जिससे योगी को बुद्धि रूप दृश्य और पुरुष रूप द्रष्टा में जो तात्त्विक भेद है वह स्पष्ट अनुभव होने लगता है और ऐसी परिस्थिति में योगी अखिल भावों का स्वामी और सकल विषयों का ज्ञाता बन जाता है।
उनतीसवीं सिद्धि
जितने काल में एक परमाणु पलटा खाता है उसको क्षण कहते हैं और उसके अवि च्छिन्न प्रवाह को क्रम कहते हैं। उनमें संयम करने से विवेक यानी अनुभव सिद्ध ज्ञान उत्पन्न होता है। भौतिक पदार्थ के सूक्ष्माति सूक्ष्म भाग को ‘परमाणु' कहते हैं। जिस काल से कम भाग में काल विभक्त न हो सके, उस सूक्ष्माति सूक्ष्म काल भाग को 'क्षण' कहते हैं। उन परमाणुओं की गति अर्थात् प्रवाह का जो रूप है उसको 'क्रम कहते हैं। क्रम क्षण से ही जाना जाता है। भूत क्षण का परिणाम वर्तमान क्षण है। वर्तमान क्षण का परिणाम भविष्यत् क्षण होगा। इस प्रकार समस्त ब्रह्माण्डों की सृष्टि क्रिया एक ही क्षण का परिणाम है। इस योग बुद्धि से क्षण और क्रम में संयम करके उनका साक्षात् ज्ञान लाभ करने से अभ्रान्त और पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है। तब योगी जिस विषय को देखता है, उसका ही यथार्थ पूर्णरूप देख लेता है। यही योगी की त्रिकालदर्शी अवस्था है।
परा सिद्धि
उपर्युक्त अपरा सिद्धियों की प्राप्ति के अनन्तर योगी को विवेका ख्याति जनित वैराग्य के कारण दोषों के बीज - नाश हो जाने पर 'कैवल्य की प्राप्ति होती है। सिद्धियाँ दो प्रकार की हैं, एक परा और अन्य अपरा। विषय सम्बन्धी सब प्रकार की उत्तम, मध्यम और अधम सिद्धियाँ ‘अपरा सिद्धि' कहलाती हैं। ये सिद्धियाँ मुमुक्षु योगी के लिये हेय हैं। इनके सिवा जो स्व - स्वरूप के अनुभव की उपयोगी सिद्धियाँ हैं वे योगिराज के लिये उपादेय परा सिद्धियां है।
जारी रहेगा..............................
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ENGLISH TRANSLATION
With the victory of Udayanavu, the yogi does not touch the things like water, mud and particulate etc. and death is also subjugated. The air which is wide from the vertical moving gorge to the head is called 'Udaanavayu'. By having this vertical ventilation and restraining in it, the body of the yogi does not get destroyed by water, pak kantak, etc. With udan vayu, the activities of all the nerves are regular. Conscious action is maintained by keeping the health of the brain healthy. Apart from this, udanavayu continues to dominate the subtle body including the vital shell. Therefore, with the glory of Udayanavayu, a yogi can attain death by desiring the body as per his wish. Just as Bhishma Pitamah had committed murder only when the sun came to Uttarayana.
TWENTY SECOND ACCOMPLISHMENT
By subduing the same air, the body of the yogi becomes light. Equality was achieved by staying far and wide around the navel, which keeps the air biography - action in equilibrium, that air is called 'Samavayuva'. The resemblance of this body is the primary relation with this air. Physical sharp power keeps biographical action in equilibrium. That is why Yogi becomes faster and more powerful by winning Samyavay with restraint.
TWENTY THIRD ACCOMPLISHMENT
Karna - By exercising restraint in relation to the sensory form of senses and sky, Yogi attains divine hearing. The sky is the basis of all words and words. As long as the relation of the sky with the ear is kept, the words would be heard, otherwise not. By this, the yogi can listen to the divine and the different types of divine words from the subtle to the subtle, from the subtle to the hidden, from the subtle to the hidden, from the restraint in the form of the dependent form of the ear and the sky.
TWENTY FOURTH ACCOMPLISHMENT
By restrain in relation to the body and the sky, and the perception of a small, light-cotton-like substance can cause movement in the sky. The sky and the body are widely and widely related. The sky is lighter than all the ghosts and is omnipresent, so when a yogi is restrained in relation to the sky and the body and at that time he also has the idea of light and light things like cotton, etc., then this action will prove lightness in him. She goes.
TWENTY FIFTH ACCOMPLISHMENT
The natural instinct of the mind outside the body is called Mahavideh 'dharna, through which the covering of light is destroyed. The instinct of the mind, which does not expect the dependents of the body outside the gross body, is called 'Mahavideha'. That is how the ego moves away. The yogi who is restrained in that instinct removes the covering of light. As long as the ego of the body remains, the external instinct of the mind remains, but when the mind's instinct is out of the free spirit by renouncing the physical ego, then the inner being of the yogi remains stool-free and dormant. The external instinct of the mind that is attached to the body is called 'Kalpita'. But without the expectation of the body, devoid of physical practice, which is the natural nature of the mind and a destitute external instinct is unimaginable. Except for the hypothetical, which is done by means of the Maha Videha Vritti, the intellect is fully developed in the form of light. Then the affliction, karma and the result of the ego - the seeker is freed from their relationship and the cover of the Raja-Tama is removed, so that the yogi attains the perfection of taking his conscience to ad libitum.
TWENTY SIXTH ACCOMPLISHMENT
The five elements of the five elements, nature, subtle, unknown and economical - these are the five stages, in which restraint is beneficial to the ghosts. The 'gross state' of ghosts is that which is visible. 'Swaroopavastha' is that which is qualitatively invisible in the gross. Like there is heat in the heat. The 'subtle state' is that of the Tanmatras. The 'Anvayavastha' is of broad sattva, raja and tamo guna and Pancham 'earth economy' is fruitful. When the Yogi Pancha conquers the five ghosts with restraint in these conditions, then nature automatically becomes subject to that yogi. Just as Gau gives milk to the child on its own, in the same way, when the nature is subjugated by the victory of the five ghosts, that nature mother immediately becomes ready to serve the yogi herself.
ASHTA ACCOMPLISHMENT - Bhoot Jayanantar Animadi Ashta Siddhi ', the light of siddhis, the attainment of all the possessions related to the body, and the rupadi religions of the body are non-violent. Anima, Laghima, Mahima, Garima, Attainment, Prakamya, Vashitva and Ishita - these are the Ashta Siddhis. When a yogi makes his body smaller than a microscopic molecule at the time of desire, then it is called 'Animasiddhi'. Laghima Siddhi says to him that when a yogi wishes, he can lighten his gross body even lightly and can go wherever he wants with the support of the sky. 'Mahima Siddhi' is that when a yogi wishes, he can increase his body as much as he wants. 'Garima Siddhi' is called when a yogi wishes to make his body as heavy as he can. It is said that 'Yogi Siddhi' means that when a yogi desires, he can reach from one world to the other in any place, whether in a planet, satellite, sun or in any Mahasurya. 'Prakāmya Siddhi' is that when the yogi desires whatever substance he wants, then that substance is received by him, that is, there will be no substance available to him in the Trilok. Vashitva Siddhi 'is that which brings all five ghosts and all material substances under the control of a yogi. And he can work with five ghosts as he wants. He himself is not under anyone's control. Ishivat Siddhi tells him that when a yogi attains the power to create the origin, position and rhythm of ghosts and material substances, if he wishes to do the new creation, he is also partial. Can do as well. These are the eight perfections. Along with these siddhis, the yogi also gets form, lavanya, force and perseverance like thunderbolt - all these physical assets.
TWENTY SEVENTH ACCOMPLISHMENT
Indra hail by restraining the five vrittis of the senses called eclipse, swaroop, asmita, anvaya and arthavatattva. The subjects which are common and especially words are all external subjects are called adhyabha, in those receptive subjects which the instincts of the senses go, it is called 'eclipse'. In some way, when unforeseen subjects are accidentally accepted, then the first thought of the mind is the 'Swarupa Vritti'. In that state, the relation of Ahkara, which is a relation of Ahkara, is called 'Asmita Vritti'. Then when the intellect starts thinking of that form, that is, when the intellect starts thinking of truth, general and special, then that attitude is called 'Anvaya'. The one who illuminates the various subjects, the position is pervasive, the instinct which is widespread in all the senses, with ahkara, is the same Pancham 'Arthasavritti Vritti. By restraining these senses in the five vrittis, subjecting them to themselves, there is complete victory of the senses.
The fruit of sense jai - the inner manojavita of the sensory jai, the sense of perversion and the principles of pradhan jai are automatically attained by the yogi. The attainment of the best speed of the body, like the speed of the mind, is called 'Manojavitva', that is, 'Manojavitam' is the name of the ability of the body to move quickly in many planned countries like the mind. Forsaking the relation of the body, which is to be attained by the senses of senses, it is called 'Vikaran Bhava', that is, the country, period or subjects which have a desire, without the body, the name of gaining speed from the Chakshuradi senses is 'Vikaran Bhava'. The name of conquering the root cause of nature's disorders is 'Pradhan Jayata', from which all the power is attained. These attainments are found automatically.
TWENTY EIGHT ACCOMPLISHMENT
Partha-karya in the intellect and man - A yogi who is full of knowledge gets all the bhavaadhishtha sativa and omniscience. When such an immaculate state of conscience occurs, then the pure light of the divine self becomes illuminated in it, which causes the yogi to have a clear experience of the elemental distinction between the visual form and the male form, and in such a situation the yogi One becomes the master of all emotions and the master of gross subjects.
TWENTY NINTH ACCOMPLISHMENT
The period in which an atom ejects is called a moment and its constant flow is called a sequence. Sobriety in them generates wisdom or experience proven knowledge. The microscopic microscopic part of a physical substance is called an 'atom'. The period of time which cannot be divided into a small part, that micro-subtle part is called a 'moment'. The motion of those atoms, that is, the form of flow, is called the sequence. The sequence is known from the moment. The present moment is the result of the past moment. The present moment will result in a future moment. In this way the creation of all the universe is the result of a single moment. By restraining in this moment and order with this yoga intellect, benefiting from the knowledge of them, one gets abstraction and complete knowledge. Then the yogi sees the exact form of the subject he sees. This is the trikaldarshi state of the yogi.
PERFECTION ACCOMPLISHMENT
In addition to the attainment of the above mentioned placenta siddhis, the yogi attains 'Kaivalya' when the seeds of defects are destroyed due to disinterested fame. There are two types of siddhis, one para and the other placenta. All the best, medium and inadequate attainments related to the subject are called 'Apara Siddhi'. These Siddhis are meant for Mumukshu Yogi. Apart from these, which are useful principles of experience of self-nature, they are attainable para-siddhis for Yogiraj.
TO BE CONTINUE.........................
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