योग ज्ञान की सप्त भूमिकाएं
प्राचीन काल में अनेकों महर्षियों ने अध्यात्म बल को प्राप्त कर परम प्राप्तव्य वस्तु का लाभकर जिस सर्वोत्कृष्ट स्थिति के भोक्ता बनने का सौभाग्य प्राप्त किया था, उस स्थिति को पाने के लिये जिसके हृदय में प्रयत्नशील होने की उत्कट इच्छा जाग्रत हुई है, उसी मनुष्य में मनुष्यत्व है। अन्यथा केवल मनुष्य - देह धारण करने से ही वास्तविक मनुष्यत्व नहीं आता। परंतु परम दयामय देवेश ने मनुष्यको जो - जो उत्तम साधन प्रदान किये हैं, उन - उन साधनों की सर्वोत्तम शुद्धि करते हुए मनुष्यत्व की अपेक्षा अत्यन्त श्रेष्ठ गुणयुक्त देवत्व और उससे भी उच्चतम ईशत्व को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करने वाला वीर साधक ही मनुष्य नाम पाने के योग्य है।
इस जगत्का प्रत्येक अणु - सजीव या निर्जीव प्रतिक्षण उत्तरोत्तर शुद्ध होकर विकास मार्ग में गतिशील हो रहा है। इसी के अनुसार मानव प्राणी के भीतर भी अन्तिम सर्वोत्कृष्ट स्थिति - मुक्ति स्थिति प्राप्त करने की अभिलाषा ज्ञात या अज्ञात भाव से रहती ही है। भगवती श्रुति कहती हैं — 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः।' इससे यह सिद्ध है कि ज्ञान प्राप्त हुए बिना मोक्षाभिलाषी की मुक्त होने की आशा निरर्थक है। वह ज्ञान क्या है, यह जानना चाहिये। इस जगत में दीखने वाली प्रत्येक लौकिक विद्या दुःखों की आत्यन्ति की निवृत्ति और सुख की परावधि की प्राप्ति करवाने में सर्वथा असमर्थ है। यह बात बुद्धिमानों के लिये सुस्पष्ट है। तब वह ऐसी कौन - सी विद्या है जिसके द्वारा मनुष्य कर्तव्य, ज्ञातव्य और प्राप्तव्य की परमोत्तम सिद्धि को साधकर कृतकृत्य हो सकता है? इस विश्व में आविष्कृत तथा अन्वेषित समस्त विद्याओं में केवल ब्रह्मविद्या ही सर्वोपरि है और उसी की सहायता से मनुष्य मनुष्यत्व से देशल और देवत्व से आगे जाकर ईशत्व में स्थित हो सकता है।
यथार्थतः उन्नतिपथ में शीघ्र अग्रसर होने की इच्छा करने वाले व्यक्ति को अपने स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण इस देहचतुष्टय तथा मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार - इस अन्तःकरण - चतुष्टय को शुद्ध करना परमावश्यक है। शुद्धि होने पर ही सत्य वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो सकता है. और सत्य ज्ञान होने पर ही कर्तव्य की परावधि प्राप्त होती है। जब तक यह स्थिति प्राप्त नहीं होती, तब तक बार - बार इस दृश्य - प्रपञ्च में प्रवेश कर नाना प्रकार के अनुभव करने पड़ते है अर्थात् तब तक जन्म - मरण के बन्धन से मुक्ति नहीं मिलती। जो महापुरुष मुमुक्षु पद में स्थित हैं और जिनके अंदर तीव्र मोक्षाभिलाषा का उद्भव हुआ है, उनके लिये परम पूज्य महर्षियों के पवित्र चरण - चिह्नों का अनुसरण करना और उनकी आज्ञा के अनुसार कर्तव्य - कर्मो को सम्पन्न करने के लिये कटिबद्ध होना बहुत ही आवश्यक है। मोक्षप्राप्ति के उपयोगी दो मार्ग हैं - योगविद्या और वेदान्तशास्त्र। श्रीयोगवासिष्ठ महारामायण में स्पष्ट लिखा है-
द्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानं च राघव। योगस्तद्वृत्तिरोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम्॥
असाध्यः कस्यचिद्योगो कस्यचिद् ज्ञाननिश्चयः। प्रकारौ द्वौ ततो देवो जगाद परमेश्वरः॥
करोड़ों वर्षों में तय होने योग्य लंबा रास्ता किस प्रकार सहज हो सकता है, यह बतलाना योग का कार्य है। जिनको मुक्त होने की तीव्र इच्छा है उनको निकट का मार्ग बताना योग का उद्देश्य है। जिस मार्ग से चलने पर बहुत ही थोड़े समय में परमपद प्राप्त होता है अर्थात् सामान्य मनुष्य को जिस वस्तु की प्राप्ति में करोड़ों वर्ष लगाने पड़ते हैं, उस वस्तु की प्राप्ति एक ही जन्म में सिद्ध महात्मा कर सकते हैं, वही मार्ग योगमार्ग। आत्म तत्त्व की अनन्त अपार शक्तियों का अटूट धाराबद्ध प्रवाह बहा देने का प्रधान मार्ग ही योगप्रणाली है। परम तत्त्व के चैतन्य सागर में से अनन्त सामर्थ्य प्राप्त करने की कला ही योगविद्या है। इस कला को हस्तगत करने पर इस विश्व में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता और इसी कारण से योगतत्त्वविद् महापुरुष कहते हैं कि योगविद्या ही सब विद्याओं की परम एवं चरम अवधि है। योगविद्या - तत्व का सत्य ज्ञान प्राप्त करने के लिये साधक को श्रीसद्गुरु का आश्रय लेना अनिवार्य है; क्योंकि वेदान्तशास्त्र के सिद्धान्त को सत्यरूप में केवल सद्गुरु ही समझा सकते हैं, उनकी सहायता के बिना केवल मिथ्या भ्रान्ति में अवनति को प्राप्त हो सकता है। इसी कारण दीर्घदर्शी तत्त्व ज्ञान सम्पन्न शास्त्रकारों ने भी आज्ञा दी है' तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाधिगच्छेत्।' ( मुण्डकोपनिषद् ) -
इस सूत्र के समर्थन में परमपूज्य आचार्यचूडामणि श्रीशंकरभगवान् भी कहते हैं
'गुरुमेवाचार्य शमदमादिसम्पन्नमभिगच्छेत्। शास्त्रज्ञोऽपि स्वातन्त्र्येण ब्रह्मज्ञानान्वेषण न कुर्यात्।
अर्थात् 'शम - दमादि सम्पन्न गुरु के समीप जाना चाहिये। शास्त्र का ज्ञान होने पर भी ब्रह्म ज्ञान की मनमानी खोज नहीं करनी चाहिये।' लौकिक विद्या की सिद्धि के लिये भी जब गुरु की आवश्यकता पड़ती है, तब ब्रह्म विद्या की सिद्धि के लिये तो सद्गुरु की निरतिशय आवश्यकता है, यह सुस्पष्ट है। क्योंकि जिसको जिस वस्तु का अधिकार प्राप्त होता है, उसी के लिये वह प्राप्त हुआ पदार्थ हितकारक होता है। अनधिकारी वेदान्तज्ञान के मार्मिक रहस्यपूर्ण हेतु को नहीं समझ सकता, इसीलिये ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिये सद्गुरु की आवश्यकता हमारे सारे शास्त्र मुक्तकण्ठ से स्वीकार करते हैं। जब वेदान्त प्रदेश में विचरण करने का समय आता है, तब ब्रह्मज्ञान, तत्त्वज्ञान आदि शब्दों से ज्ञान को समझाना सहज होता है। ज्ञान और उस ज्ञान से विभूषित महापुरुषों की अन्तर्बाह्य स्थिति के स्वरूप को समझने में सरलता हो, इसीलिये ज्ञान की सात भूमिकाओं का वर्णन किया गया है। वे सात भूमिकाएँ इस प्रकार है-
भूमयः सप्त तद्वत्स्युर्ज्ञानस्योक्ता महर्षिभिः। शुभेच्छा ननु तत्राद्या ज्ञानभूमिः प्रकीर्तिता।
विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसा॥ सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्थादसंसक्तिश्च पञ्चमी।
पदार्थाभावनी षष्ठी सप्तमी वाथ तुर्यगा।( वेदान्तसिद्धान्तादश )
महर्षियोंने ज्ञान की सात भूमिकाएँ कही हैं- (१)शुभेच्छा, (२)विचारणा, (३)तनुमानसा, (४)सत्त्वापत्ति, (५) असंसक्ति, (६)पदार्थाभावनी और (७)तुर्यगा। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१ शुभेच्छा - नित्यानित्यवस्तुविवेकादिपुरःसरा फलपर्यवसायिनी मोक्षेच्छा शुभेच्छा। अर्थात् ' नित्यानित्य वस्तु विवेक - वैराग्यादि के द्वारा सिद्ध हुई फल में पर्यवसित होने वाली मोक्ष की इच्छा अर्थात् विविदिषा, मुमुक्षुता, मोक्ष के लिये आतुर इच्छा ही शुभेच्छा है। 'मैं मूढ़ होकर ही क्यों स्थित रहूँ, मैं शास्त्रों और सत्पुरुषों के द्वारा जानकर तत्त्व का साक्षात्कार करूँगा' - इस प्रकार वैराग्यपूर्वक केवल मोक्ष की इच्छा होने को ज्ञानी जनों ने शुभेच्छा कहा है।
२ विचारणा - गुरुमुपसृत्य वेदान्तवाक्यविचारात्मक श्रवणमननात्मिका वृत्तिः सुविचारणा। 'श्रीसद्गुरु के समीप वेदान्त वाक्य के श्रवण - मनन करने वाली जो अन्तःकरण की वृत्ति है, वह सुविचारणा कहलाती है। ' योगवासिष्ठ में यह बताया गया है कि शास्त्रों के अध्ययन, मनन और सत्पुरुषों के सङ्ग तथा विवेक - वैराग्य के अभ्यासपूर्वक सदाचार में प्रवृत्त होना — यह विचारणा नाम की भूमिका है-
शास्त्रसजनसम्पर्कवैराग्याभ्यासपूर्वकम् पदाचारप्रवृत्तियाँ प्रोचते सा विचारणा॥
सत्पुरुषों के सङ्ग - सेवा एवं आज्ञापालन से, सत् - शास्त्रों के अध्ययन - मनन से तथा दैवी सम्पदारूप सद्गुण - सदाचार के सेवन से उत्पत्र हुआ विवेक (विवेचन) ही विचारणा है। भाव यह है कि सत् - असत् और नित्य - अनित्य वस्तु के विवेचन का नाम हो विवेक है, सब अवस्थाओं में और प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण आत्मा और अनात्मा का विश्लेषण करते - करते यह विवेक सिद्ध होता है। विवेक के द्वारा असत् और अनित्य से आसक्ति हट जाती है, इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण पदार्थों में और कर्मो में कामना और आसक्ति का न रहना ही वैराग्य है। इस प्रकार विवेक - वैराग्य हो जाने पर साधक का चित्त निर्मल हो जाता है और वह नित्य परमात्मा के स्वरूप के चिन्तन में ही लगा रहता है।
३ तनुमानसा - निदिव्यासनाभ्यासेन मनस एकाग्रतया सूक्ष्मवस्तुग्रहणयोग्यता तनुमानसा। 'निदिध्यासन (ध्यान और उपासना के अभ्यास) से मानसिक एकाग्रता प्राप्त होती है, उसके द्वारा जो सूक्ष्म वस्तु के ग्रहण करने की सामर्थ्य (योग्यता) प्राप्त होती है उसे तनुमानसा कहते हैं। सच्चिदानन्द धन पर ब्रह्म परमात्मा का चिन्तन करते - करते उस परमात्मा में तन्मय हो जाना तथा अत्यन्त वैराग्य और उपरति के कारण परमात्मा के ध्यान में ही नित्य स्थित रहने से मन का विशुद्ध होकर सूक्ष्म हो जाना ही तनुमानसा नाम की तीसरी भूमिका है, अतः इसे निदिध्यासन भूमिका भी कहा जा उपर्युक्त तीन भूमिकाएँ जाग्रत् भूमिकाएँ कहलाती हैं। क्योंकि इनमें जीव और ब्रह्म का भेद स्पष्ट ज्ञात होता। इनमें स्थित व्यक्ति साधक माना जाता है, ज्ञानी नहीं। क्योंकि एतस्मिन्नवस्थात्रये ज्ञानोत्पादनयोग्यतामात्र सम्पद्यते न च ज्ञानमुत्पद्यते। - 'इन तीनों अवस्थाओं में तत्त्व ज्ञान के प्राप्ति की योग्यता प्राप्त होती है, ब्रह्मज्ञान नहीं प्राप्त होता', अर्थात् इन तीन भूमिकाओं में विचरता हुआ पुरुष ब्रह्म में अभेद - भाव को प्राप्त नहीं होता। परंतु ज्ञान की प्राप्ति के लिये इनकी पहले अत्यन्त आवश्यकता होने के कारण इनकी गणना अज्ञान की भूमिका में न होकर ज्ञान की भूमिका में ही होती है। ज्ञानभूमिकावं तु ज्ञानेतरकर्माधनधिकारित्वे सति ज्ञानस्यैवाधिकारित्वात्। इन तीन भूमिकाओं में स्थित पुरुष ज्ञान से इतर कर्मादिका अधिकारी नहीं होता है। प्रत्युत केवल ज्ञान - तत्त्वज्ञान का ही अधिकारी होता है।
४ सत्त्वापत्ति - निर्विकल्पब्रह्मात्मैक्यसाक्षात्कारः सत्त्वापत्तिः। संशयविपर्ययरहित ब्रह्म और आत्मा के तादात्म्य अर्थात् ब्रह्मस्वरूपैकात्मत्व का अपरोक्ष अनुभव ही सत्त्वापत्ति नामकी चतुर्थ भूमिका है। यह सिद्धावस्था है। इस भूमिका में स्थित महापुरुष को 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' का वास्तविक अनुभव हो जाता है। इसी को श्रीमद्भगवद्गीता में निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति कहा गया है योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्योतिरेव स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥ 'जो पुरुष आत्मा में ही सुखी है, आत्मा में ही रमण करता है तथा जो आत्मा में ही ज्ञानवान् है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त मैं ही ब्रह्म है, इस प्रकार करने वाला ज्ञानयोगी शान्त ब्रह्म को प्राप्त होता है। 'अनुभव ऐसी स्थिति में उसका इस शरीर और संसार से कुछ सम्बन्ध नहीं रहता। ब्रह्मवेत्ता पुरुष के अन्तःकरण में शरीर और अन्तःकरण के सहित यह संसार स्वप्रवत् प्रतीत होता है। श्रीयाज्ञवल्क्यजी, राजा अश्वपति और राजा जनक आदि इस चौथी भूमिका में पहुंचे हुए माने गये हैं। यद्यपि इस दशा को प्राप्त पुरुष को जगत्का भान होता है और शरीर तथा अन्तःकरण द्वारा सभी क्रियाएँ सावधानी के साथ होती हैं तथापि मायावश जीव जिस जगत्को सत्यस्वरूप देखता है, उस जगत्के मिथ्यात्व का उसे यथार्थ अनुभव हो गया है। यह भूमिका स्वप्न कहलाती है।
५ असंसक्ति – सविकल्पकसमाध्यभ्यासेन निरुद्धे मनसि निर्विकल्पकसमाध्यवस्थासंसक्तिः। 'सविकल्पक समाधि के अभ्यास के द्वारा मानसिक वृत्तियों के निरोध से जो निर्विकल्पक समाधि की अवस्था होती है, वही असंसक्ति कहलाती है। 'इसे सुषुप्ति भूमिका भी कहते हैं, क्योंकि इस भूमिका में सुषुप्ति - अवस्था के समान ब्रह्म से अभेद - भाव प्राप्त हो जाता है। यह जगतापञ्च को भूला रहता है, परंतु समय पर स्वयं ही उठता है और किसी के पूछने पर उपदेश करता है तथा देहनिर्वाह की क्रिया भी करता है। अस्यामवस्थायर्या योगी स्वयमेव व्युत्तिष्ठते। परम वैराग्य और परम उपरति के कारण उस ब्रह्म - प्राप्त ज्ञानी महात्मा का इस संसार और शरीर से अत्यन्त सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, इसलिये इस पाँचवीं भूमिका को असंसक्ति कहा गया है। ऐसे पुरुष का संसार से कोई प्रयत्न नहीं रहता। अतः वह कर्म करने या न करने के लिये बाध्य नहीं है। श्रीजडभरतजी इस पाँचवीं भूमिका में स्थित माने जा सकते हैं।
६ पदार्थाभावनी - असंसक्ति भूमिकाभ्यास पाटवातिर प्रपश्चापरिस्फूर्त्यवस्था पदार्थाभावनी। 'असंसक्ति नामक पाँचवीं भूमिका के परिपाक से प्राप्त पटुता के कारण दीर्घकालतक अपडके स्फुरण का अभाव पदार्थाभावनी भूमिका कहलाती। पांचवी भूमिका मे विश्वप्रपञ्च का विस्मरण अल्पकाली माता है और छठी भूमिका यह स्थिति दीर्घकालपर्यन्त रह सकती है। इन दोनों भूमिकाओ में केवल समय का ही भेद होता है। इस भूमिका को गाढ सुषुप्ति के नाम से पुकारते हैं। इस भूमिका में स्थित महापुरुष देशनिर्वाहादि क्रिया भी स्वतः व्युत्थित दशा में आकर नहीं करता, परंतु 'अस्थामवस्थायर्या परप्रयनेन योगी व्युत्तिष्ठते।' 'अन्य के द्वारा व्युत्थान पाकर वह क्रिया करता है। दूसरा कोई मुख में पास दे देता है तो दाँत और जीभ से खाने की क्रिया हो जाती है, इत्यादि। जब ब्रह्म प्राप्त पुरुष छठी भूमिका में प्रवेश करता है, तब उसकी नित्य - समाधि रहती है, इसके कारण उसके द्वारा कोई भी क्रिया नहीं होती। उसके अन्तःकरण में शरीर और संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का अत्यन्त अभाव - सा हो जाता है। उसे संसार का और शरीर के बाहर - भीतर का बिलकुल ज्ञान नहीं रहता, केवल सास आते - जाते हैं, इसलिये इस भूमिका को 'पदार्थाभावनी' कहते हैं। जैसे गाढ़ सुषुप्ति में स्थित पुरुष को बातर - भीतर के पदार्थो का ज्ञान बिलकुल नहीं रहता, वैसे ही इसको भी ज्ञान नहीं रहता। अतः पुरुष की अवस्था को 'गाढ़ सुषुप्ति - अवस्था' भी कहा जा सकता है। किंतु गाढ़ सुषुप्ति में स्थित पुरुष के तो मन - बुद्धि अज्ञान के कारण माया में विलीन हो जाते हैं। अतः उसकी स्थिति तमोगुणमयी है, पर इस ज्ञानी महापुरुष के मन - बुद्धि ब्रह्म में तद्रूप हो जाते हैं। अतः इसकी अवस्था गुणातीत है। इस समाधिस्थ ज्ञानी महात्मा पुरुष की व्युत्थानावस्था दूसरों के बारंबार प्रयत्न करने पर होती है, अपने - आप नहीं। उस व्युत्थानावस्था में वह जिज्ञासु के अन्न करने पर पूर्व के अभ्यास के कारण ब्रह्मा - विषयक तत्त्व - रहस्य को बतला सकता है। इसी कारण ऐसे पुरुष को अाविहरीयान' कहते हैं। श्रीऋषभदेवजी इस छठी भूमिका में स्थित माने जा सकते हैं।
७ तुरीया - तुयर्गा - ब्रह्मध्यानावस्थस्य पुनः पदार्थान्त रापरिस्फूर्तिस्तुरीया। 'ब्रह्मचिन्तन में निमग्न इस महापुरुष को पुनः किसी भी समय किसी भी अन्य पदार्थ की परिस्फूर्ति का न होना, यही ज्ञान की सप्तम भूमिका तुरीया कहलाती है। इस स्थिति को प्राप्त महात्मा स्वेच्छा पूर्वक या परेच्छा पूर्वक व्युत्थान को प्राप्त ही नहीं होता, केवल एक ही स्थिति - ब्रह्मीभूत - स्थिति में ही सदा रमण करता है। अस्यामवस्थायां योगी न स्वतो नापि परकीयप्रयत्नेन व्युत्तिष्ठते केवलं ब्रह्मीभूत एव भवति। छठी भूमिका के पश्चात् सातवीं भूमिका स्वतः ही हो जाती है। उस ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी महात्मा पुरुष के हृदय में संसार और शरीर के बाहर - भीतर के लौकिक ज्ञान का अत्यन्त अभाव हो जाता है। क्योंकि उसके मन - बुद्धि ब्रह्म में तद्रूप हो जाते हैं, इस कारण उसकी व्युत्थानावस्था तो न स्वतः होती है और न दूसरों के द्वारा प्रयत्न किये जाने पर ही होती है। जैसे मुर्दा जगाने पर भी नहीं जाग सकता, वैसे ही यह मुर्दे की भाँति हो जाता है, अन्तर इतना ही रहता है कि मुर्दै में प्राण नहीं रहते और इसमें प्राण रहते हैं तथा श्वास लेता रहता है। ऐसे पुरुष का संसार में जीवन - निर्वाह दूसरे लोगों के द्वारा केवल उसके प्रारब्ध के संस्कारों के कारण ही होता रहता है। वह प्रकृति और उसके कार्य सत्त्व, रज, तम तीनों गुणों से और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से अतीत होकर ब्रह्म में विलीन रहता है, इसलिये यह उसके अन्तःकरण की अवस्था तुर्यगा या तुरीया' भूमिका कही जाती है।
उपर्युक्त महात्मा पुरुष उस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को नित्य ही प्राप्त है। अतः उसके मन - बुद्धि में भी संसार का अत्यन्त अभाव है। इसलिये ऐसे पुरुष को 'ब्रह्मविद्वरिष्ठ' कहते हैं। इस प्रकार ज्ञान की सात भूमिकाओ में प्रथम तीन भूमिकाएँ ज्ञान की प्राप्ति के लिये योग्यता प्राप्त करने के निमित्त बनायी गयी हैं। चौथी से सातवीं भूमिका तक ज्ञान की दशा है और यह उत्तरोत्तर उन्नत दशा की भूमिका है। चतुर्थ भूमिका में ही तत्त्व ज्ञान का यथार्थ प्रादुर्भाव हो जाता है और वही तत्त्व ज्ञान अन्तिम चारों भूमिकाओं में स्थित रहता है। व्युत्थान - दशा के तारतम्य से इनमें भेद माना गया है। शास्त्र कहता है - 'ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति।' अतः ब्रह्म के जानने वालों को ज्ञानी, तत्त्वज्ञानी, आत्मज्ञानी की संज्ञा से शास्त्रों ने स्थान - स्थान पर उल्लेख किया है एताः सत्त्वापत्याद्याश्चतस्रो भूमिका एव ब्रह्मविद् ब्रह्मविद्वरब्रह्मविद्वरीयो ब्रह्मविद्वरिष्ठेत्येतैर्नामभिर्यथाक्रमेण पूर्व व्याख्याताः।
इस प्रकार सत्त्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थाभावनी और तुरीया - इन चार भूमिकाओं में स्थित महात्मा क्रमशः ब्रह्मविद्, ब्रह्मविद्वर, ब्रह्मविद्वरीयान् और ब्रह्मविद्वरिष्ठ कहलाता है। 'ब्रह्मविद्वरिष्ठ महापुरुष से वार्तालाप न होने पर भी उसके दर्शन और चिन्तन से ही मनुष्य के चित्तस्थ मल - विक्षेप का तथा आवरण का नाश हो जाता है। फलतः उसकी वृत्ति परमात्मा की ओर आकृष्ट हो जाती है और उसका सर्वथा कल्याण हो जाता है।
जारी रहेगा......................................
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ENGLISH TRANSLATION
SEVEN ROLES OF YOGA KNOWLEDGE
In the ancient times, many Maharishis had acquired the power of spirituality by taking advantage of the ultimate achievable thing and had the privilege of becoming the best bearer of the state, to attain the condition, in whose heart the fervent desire to be active has awakened, in that human being, manhood is. Otherwise, mere human-body does not bring real manhood. But the Supreme Daya Devesh, who has provided the best means to man, those - those brave seekers who strive to achieve the highest virtuous divinity and even higher godliness than mankind by purifying the best of those means, to get the human name. Is worthy of
Each molecule - living or non-living, is being purified progressively and is moving in the path of development. Accordingly, the desire to attain the ultimate superlative status - liberation status even within human beings - remains with a known or unknown sense. Bhagwati Shruti says - 'Rite gnanānān muktāh.' This proves that without attaining knowledge, the hope of liberation of a salvation is futile. It is necessary to know what that knowledge is. Every cosmic science seen in this world is completely unable to achieve the end of the torment of sorrows and the period of happiness. This thing is clear for the wise. Then what is the way through which a person can be gratified by achieving the ultimate accomplishment of duty, knowledge and attainment? In this world, only theology is paramount among all the invented and invented disciplines, and with the help of this, one can move beyond mankind to country and divinity to Godhead.
It is absolutely necessary for a person who wishes to move quickly to Unnathpath to purify his body, mind, mind, mind and ego - this conscience - the fourth. Only on purification can there be an accurate knowledge of the truth. And only when there is true knowledge, the duration of duty is attained. Until this condition is attained, one has to enter into this visual system again and again to experience many different types, that is, till then there is no liberation from the bondage of birth and death. For those who are situated in the post of the great man Mumukshu and in whom intense salvation has emerged, it is very important to follow the sacred footprints of the most revered Maharishis and be determined to perform their duties and duties according to their command. There are two useful paths to salvation - Yogavadya and Vedantasastra. It is clearly written in Shree Yogasishtha Maharamayana-
Dva kramau chittanashasya yogo jnanam cha raghva Gyanam Samyagasakanam
Incurable: Kasyachidyogya Kasyachidya Gyananishayah. The type Dau Tato Devo Jagad Parmeshwar
How can a long path that can be fixed in millions of years be easy, it is the work of Batalana Yoga. The aim of yoga is to tell those who have a strong desire to be free, the nearest path. The path you get in a very short period of time, that is, the ordinary person, who has to spend millions of years in the attainment of that thing, can achieve that thing in one birth, the Siddha Mahatma can achieve the same path, the path of yoga. The yoga system is the main way to shed unbroken current flow of the infinite immense powers of the self. Yoga is the art of attaining eternal power from the enlightened ocean of the supreme being. On accepting this art, nothing is rare in this world, and for this reason, yogatmologist Mahapurusha says that yoga is the ultimate and peak period of all disciplines.
Yogavidya - In order to get the true knowledge of the element, the seeker has to take shelter of Srisadguru; Because only the Sadhguru can explain the doctrine of Vedantasastra, without his help only decadence can be achieved in false misconceptions. For this reason, the philosophers, who have knowledge of the long-sighted element, have also given orders, "For the sake of knowledge, I have the Gurumevadhigachche." (Mundakopanishad) -
In support of this sutra, His Holiness Acharya Chudamani also says Srishankar Bhagwan
'Gurumevacharya Shammadamadisampannambhigachchet. The scholarly autocracy independent brahmacryana na kuryat.
That is, ‘Sham - Damadi should go near the Guru. Even with knowledge of scripture, one should not make arbitrary search for Brahman knowledge. ' Even when the Guru is needed for the attainment of cosmic knowledge, then for the attainment of Brahman learning, there is an absolute need of the Sadhguru, it is clear. Because whoever gets the right, for that matter, the material that is received is beneficial. The non-official cannot understand the poignant secret of Vedant Gyan, that is why all our scriptures accept the need of Sadhguru for the attainment of Brahm Gyan. When the time comes to visit Vedanta region, it is easy to explain knowledge with the words Brahm Gyan, Tattvagyan etc. There is simplicity in understanding the nature of knowledge and the inward condition of the great men who are blessed with that knowledge, hence the seven roles of knowledge have been described. Those seven roles are as follows -
Bhumayya: Sapta tadvatsyugayanasukta Maharsibhi: Shubhechha naanu tatradya jnanabhoomi: Prakritita.
Prathana davitiya tu tritiya tanumanasa॥ Sattvapattishturthi Stadasansakashisht Panchami.
Pardathabhavani Shasthi Saptami Vath Turyaga. (Vedantasiddhantadash)
Maharishi's seven roles of knowledge Some are- (1) auspiciousness, (2) thinking, (3) tanumanasa, (4) sattvapatti, (5) asansakti, (4) pardathabhavani and (4) turyaga. Their brief description is as follows
1 That is, 'Nityanitya vivek - The desire for salvation to be achieved in the fruit as proved by Vairagyadi, ie vividisha, mumukhuta, a ferocious desire for salvation is a good wish. 'Why should I remain foolish, I will know the element through the scriptures and the satturas' - thus the wise people have said only a wish for salvation in a serene way.
2 Thinking - Gurumupasatta vedanatvākāvikāvikā श्रa sravāmanamānāmātika vritti: suvicharna. The inner instinct of listening to the Vedanta sentence near Srisadguru is called suvicharna. It has been told in the Yogavasistha that the study of the scriptures, contemplation and practice in the virtuous practice of conscience and conscience - the role of namana - this is the role of the name -
Thinking in the form of literature
Conscience is produced from the company of the saints - from service and obedience, from the study of the sastra scriptures - from contemplation and from the use of divine virtue, virtue - virtue. The sense is that discretion is the name of the discourse of the satta-asat and the eternal-infinite thing, by analyzing the soul and the soul in every state and every thing, it becomes a prudence. Attachment is removed from the untruth and infinity through the conscience, in this whole matter of the world and the hereafter, and desire in deeds and lack of attachment is detachment. In this way, the mind of the seeker becomes clean after the conscience - disinterestedness and he remains engaged in contemplation of the form of the eternal God.
3 Tanumanasa - Nidivyasanabhyasana Manas concentrates, microvision, enlightenment, Tanumanasa. 'Nididhyasana (practice of meditation and worship) attains mental concentration, the ability (ability) of the subtle object to be received by him is called Tanumanasa. Sachchidananda while contemplating the divine God on wealth - becoming whole in that God and due to very quietness and upwardness, being constantly in the mind of the divine, being pure and subtle, the mind is the third role of the name Tanumanasa, so it is called Nididhyasana.
Role can also be called the above mentioned three roles are called Awakening roles. Because the difference between Jeeva and Brahma would have been known clearly. The person located in them is considered a seeker, not a learned person. Because etasminavasthatraya jyotanadapatayogatamamamam sampadyate na f jnanamutpadyate. - 'In these three states one attains the attainment of elemental knowledge, does not attain the knowledge of Brahman', that means the male wandering in these three roles does not get impenetrable feeling in Brahman. But due to their great need for the attainment of knowledge, they are counted in the role of knowledge rather than in the role of ignorance. Jnanabhumikavastu, Jnanatekarma; There is no karmadika officer outside of male knowledge situated in these three roles. By and large, only knowledge is capable of knowledge.
4 Sattvatti - Nirvikalpabrahmātamakyāsakātara: Sattvapatti. The fourth role of Sattvapatti is the unmanifest experience of unconcerned Brahman and the identity of the soul, that is, Brahma Swaroopaikatattva. This is Siddhavastha. The great man in this role gets a real experience of 'Brahma Satya Jaganmithya'. This is said to be the attainment of Nirvana Brahm in the Srimad Bhagavad Gita, Yoantha: Sukhhoantararamasthanjyotirev Yogi Brahmavirvanam Brahmabhutodhigachthi 'The man who is happy in the soul, he is happy in the soul and the one who is knowledgeable in the soul, he is the one who attains the harmony with the true God of truth and attains the divine spirit, thus one who attains the enlightened peace of mind, is the Brahman. 'In such a state of experience, he has nothing to do with this body and the world. In the conscience of the Brahmavetta Purush, this world, with the body and conscience, appears self-effacing. Shriyagavalkyaji, Raja Ashwapati and Raja Janak etc. are believed to have reached this fourth role. Although the person attaining this condition has awareness of the body and all actions by body and conscience are done with caution, however, he has got a real experience of the illusion of the world which the creature sees as true. This role is called dream.
5 Asansakti - Savikalpakasamadhyabhyasan Niruddhe Mansi Nirvikalpakasamadhyavasthasasankti: 'The state of uninterrupted samadhi, which is the state of uninterrupted samadhi through the prevention of mental instincts through the practice of alternative samadhi, is called disinhibition. It is also called the dormancy role, because in this role, one gets the impulse - feeling from the Brahman, similar to the dormancy stage. It forgets Jagatpancha, but wakes up on time itself and preaches at the behest of anyone and also performs the action of incarnation. Asyamavastharayya Yogi Swayameva Vyutisthatte. Because of the supreme disinterest and ultimate sublime, that Brahman-possessed knowledgeable Mahatma is severely disconnected from this world and body, so this fifth role is called non-violence. Such a man has no effort from the world. Therefore, he is not obliged to do or not to act. Srijadbharatji this fifth land Can be considered to be located in Mika.
6 Pardathabhavani - Uncooperative role practice Patwatir prashwarishpurshurvastha Pardathabhavani. Lack of long-term self-sufficiency due to the ingenuity derived from the fifth role called Asansakti was called the post-natal role. In the fifth role, the omnipotence of the world world is a short-lived mother, and the sixth role, this situation can remain for a long time. In both these roles, there is only a distinction of time. This role is called by the name of Deep Suptupti. In this role, the great man Deshnirvahadi Kriya also does not automatically come in the derivative state, but 'Asthamavastharaya Paraprayanen Yogi Vyushisthette.' He performs the verb after derivative by others. If someone gives a pass in the mouth, then there is the action of eating with the teeth and tongue, etc. When the person who attains Brahman enters the sixth role, then he has continual samadhi, because of this there is no action by him. In his conscience, there is a complete lack of all the substances of the body and the world. He has absolutely no knowledge of the world and outside the body, only the mother-in-law comes and goes, so this role is called 'Pardathabhavani'. Just as a man situated in a deep latrine does not have knowledge of the inner matter - it does not have the same knowledge. Therefore, the state of a man can also be called 'deep sleep - state'. But because of ignorance of the man who is situated in deep sleep, the mind and intellect merge into Maya. Therefore, his position is tamogunmayi, but the mind and intellect of this learned sage is transformed into brahm. Hence, its state is multiplied. This samadhisti, the knowledgeable Mahatma Purush, has an inversion on the repeated efforts of others, not his own. In that inversion, he can reveal the mystery of Brahma - the element - because of previous practice on the grain of the curious. For this reason, such a man is called 'Avihirayan'. Sri Rishabhdev ji can be considered to be situated in this sixth role.
7 Turiya - Tuarga - Brahmadhyanavasthasya, again the substance Rāparisfurtisturiya. 'This great man, who is immersed in Brahmacintan, does not have the presence of any other substance at any time, this is the seventh role of knowledge called Turiya. The Mahatma attained this position is not only voluntarily or a deliberate derivative, only one always praises in the same situation - Brahmbhuta -. Asyamavasthayana Yogi nor Satto Naap Paryakriyapatenen Vyadisthette Only, I do not have the consciousness and the existence. The seventh role is automatically performed after the sixth role. There is a lack of cosmic knowledge inside the world and outside the body in the heart of that brahmavita, the knowledgeable Mahatma. Because his mind and intellect are transformed into Brahma, due to this, his inversion is neither automatic nor does it happen on the efforts of others. Just like a dead person cannot awake, similarly it becomes like a corpse, the difference remains so much that a dead person does not have life and lives in it and keeps breathing. The life of such a man in the world is maintained by other people only due to the rites of his destiny. He is merged with the nature and its functions Sattva, Raja, Tama from all the three qualities and from the three stages of awakening, dreaming, dormancy, in Brahma, so it is called Turyaga or Turiya, the role of his conscience.
The above mentioned Mahatma Purush is the eternal recipient of that Sachchidanandaghan Brahm. Therefore, there is a lack of world in his mind and intellect. That is why such a man is called 'Brahmavidarishtha'. In this way, the first three roles in the seven roles of knowledge have been created in order to gain the qualification for the attainment of knowledge. The fourth to the seventh role is the state of knowledge and it is the role of the progressively advanced stage. In the fourth role itself, the realization of element knowledge becomes true and the same element knowledge is situated in the last four roles. A distinction has been taken from the concept of derivative condition. The scripture says - 'The Brahmavid Brahmav Bhavati.' Therefore, with the noun of the knowledgeable, philosopher, self-knowledgeable, the scriptures have mentioned place-by-place.
Thus Sattvapatti, Asansakti, Padaarthabhavani and Turiya - Mahatmas in these four roles are called Brahmavid, Brahmavidwar, Brahmavidvariyan and Brahmavidwarishta respectively. 'Even if we do not have a conversation with a Brahmavidarishtha great man, his mind and mind are destroyed due to his philosophy and thinking. As a result, his instinct is attracted towards God and he gets complete welfare.
TO BE CONTINUE................................
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