THE PLACENTA And PARA SIDDHIS OBTAINED From YOGA PART(2)
पहली सिद्धि
व्युत्थान - संस्कारों का लय होकर जो निरोध - संस्कारों का प्रकट होना है तथा निरोध के क्षण में जो चित्त का धर्मी रूप में दोनों के साथ अन्वय है उसे 'निरोध परिणाम - सिद्धि' कहते हैं। निरोध - संस्कार से अन्तः करण की शान्ति प्रवाहित होती है। नाना विषयों के संस्कार से जो अन्तः करण की चञ्चलता होती है, उस 'सर्वार्थता का क्षय और एकाग्रता का उदय ही अन्तः करण में समाधिका परिणाम है। तब 'शान्त प्रत्यय' अर्थात् एकाग्रता परिणाम में सिद्धि की इच्छा रखने वाले योगी का अन्तः करण तरङ्ग रहित जलाशय के समान वृत्तियों की सर्वार्थताओं से रहित होकर शान्त हो जाता है, इसी अवस्था का नाम 'शान्त प्रत्यय' है, और उदित प्रत्यय, अर्थात् शान्त प्रत्यय के साथ ही सिद्धियों की इच्छा जनित वासना बीज के वेग से सिद्धि के उन्मुख योगी का अन्तः करण रहता है, इसी अवस्था का नाम 'उदित प्रत्यय' है। इन दोनों प्रत्ययों की समानतारूप चित्त की जो स्थिति है वही 'एकाग्रता परिणाम' है। इससे स्थूल, सूक्ष्म भूत और इन्द्रियों में भी 'धर्म परिणाम', 'लक्षण परिणाम' और 'अवस्था परिणाम' वर्णित किये गये है ऐसा समझना चाहिये। पृथ्वी रूप धर्मी का जो घट रूप विकार है उसको 'धर्म परिणाम' कहते है। घटका जो अनागत लक्षण के त्याग पूर्वक वर्तमान लक्षण वाला हो जाना घटरूप धर्म का 'लक्षण परिणाम' है और वर्तमान लक्षण वाले घटका जो नयापन तथा क्षण - क्षण में पुरातन पन है उसको 'अवस्था - परिणाम' कहते हैं। इन तीनों परिणामों का इन्द्रियों में भी इस प्रकार विचार किया जाता है — जैसे इन्द्रियों का जो नील - पीतादि विषयों का ज्ञान है वही उनका 'धर्म परिणाम' है, नीलादि ज्ञान का जो वर्तमान लक्षणवाला हो जाना है उसी का नाम 'लक्षण परिणाम' है। वर्तमान दशा में जो स्पष्ट पन या अस्पष्ट पन है उसका नाम अवस्था परिणाम' है। शान्त - अतीत, उदित - वर्तमान और अव्यपदेश्य - भविष्यत्, जो धर्म है उनमें अनुगत होने वाला धर्मी' है। परिणामों के भेद में क्रमों का भेद कारण रूप है। क्रम के अदल - बदल से ही परिणामों का परिवर्तन होता है, जैसे प्रथम मिट्टी के परमाणु होते हैं, पुनः उनसे मिट्टी का पिण्ड बनता, फिर मिट्टी के पिण्ड से घट बनता है। घट फूटकर कपाल हो जाता है, कपाल से ठीकरे हो जाते हैं, फिर ठीकरे परमाणु में परिणत होते हुए मिट्टी के रूप को ही धारण कर लेते हैं। ठीक वैसे ही अन्तःकरण की पूर्व वृत्ति उत्तर - वृत्तिका पूर्व कारण होती हुई क्रम के अनुसार धर्मान्तर - परिणाम करती है। प्रकृति के सब तरङ्गों का परिवर्तन और अन्तः करण में सुख - दुःख आदि धर्मो का परिवर्तन - ये सब इसी क्रम - नियम के ऊपर निर्भर हैं। अतएव धर्म, लक्षण और अवस्था नामक तीनों परिणामों में संयम करने से योगी को भूत और भविष्य का ज्ञान होता है।
दूसरी सिद्धि
शब्द, अर्थ और ज्ञान के एक दूसरे में मिले रहने से संकर अर्थात् घनिष्ठ मेल है, उन के विभागों में संयम करने पर 'सब प्राणियों की वाणी' का ज्ञान होता है।
तीसरी सिद्धि
संस्कारों के प्रत्यक्ष होने से योगी को पूर्व जन्म का ज्ञान होता है। जैसे मनुष्य के छाया रूप चिह्न को यन्त्र द्वारा धारण करने की शक्ति उत्पन्न करके वैज्ञानिक गण फोटोग्राफ में मनुष्य मूर्ति को यथावत् प्रकाशित कर देते हैं, वैसे ही संस्कारों में संयम करने से संस्कार के कारण रूप कर्मों का यथावत् ज्ञान योगी को हो सकता है।
चौथी सिद्धि
ज्ञान में संयम करने पर दूसरे के चित्त का ज्ञान होता है। जिस अन्तः करण में जैसा गुण - परिणाम रहता है, वैसी ही उस अन्तः करण से सम्बन्ध युक्त ज्ञान की स्थिति होती है। अतः यदि किसी जीव विशेष के अन्तः करण का हाल जानना हो तो उसके ज्ञान की पर्यालोचना करके उस जीव के मन का सब हाल जान सकते हैं।
पाँचवीं सिद्धि
कायागत रूप में संयम करने से उसकी ग्राह्य शक्ति का स्तम्भ हो जाता है; और शक्ति स्तम्भ होने से दूसरे के नेत्र के प्रकाश का योगी के शरीर के साथ संयोग नहीं होता, तब योगी के शरीर का अन्तर्धान हो जाता है। जैसे रूप विषयक संयम करने से योगी के शरीर के रूप को कोई नहीं देख सकता, उसी प्रकार शब्दादि पाँचों के विषय में संयम करनेसे योगी के शरीर के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध को पास में रहा हुआ पुरुष भी नहीं जान सकता।
छठी सिद्धि
सोपक्रम - जो कर्म शीघ्र फलदायक हो जाता है उस शीघ्र कार्यकारी कर्म की अवस्था का नाम 'सोपक्रम' है, जैसे जल से भीगे हुए वस्त्र को निचोड़कर सुखा देने से वस्त्र शीघ्र सूख जाता है तथा निरुपक्रम - कर्म - विपाक की मन्दता के कारण विलम्ब से फलदायक कर्म की अवस्थाका नाम 'निरुप क्रम' है, जैसे बिना निचोड़ा पिण्डीकृत वस्त्र बहुत काल में सूखता है। इन दो प्रकार के कर्मों में जो योगी संयम करता है उसको मृत्यु का ज्ञान हो जाता है। अथवा त्रिविध अरिष्टों से मृत्यु का ज्ञान होता है।
सातवीं सिद्धि
मैत्री, मुदिता, करुणा और उपेक्षा आदि में संयम करने से तत्सम्बन्धी बल की प्राप्ति होती है। मैत्रीबल, करुणाबल, मुदिता बल और उपेक्षा बल की प्राप्ति करके योगी पूर्ण मनोबल अर्थात् आत्मबल प्राप्त करता है। जो शक्ति अन्तः करण को इन्द्रियों में गिरने न देकर नियमित रूप से आत्म स्वरूप की ओर खींचती रहती है उसी को 'आत्मबल' या तेज कहते हैं।
आठवीं सिद्धि
बल में संयम करने से योगी को हस्तीके - से बलादि प्राप्त हो सकते हैं। बल दो प्रकार का है - एक आत्मबल, दूसरा शारीरिक बल। प्रकृति के विभिन्न होने से बल में स्वतन्त्रता है, जैसे सिंहबल, गजबल, बलशाली खेचर पक्षियों का बल और बलशाली जलचरों का बल। जिस प्रकार के बल की आवश्यकता हो उसी प्रकार के बल शाली जीवों के बल में संयम करने से योगी को उसी प्रकार के बल की प्राप्ति हुआ करती है।
नवीं सिद्धि
ज्योतिष्मती प्रकृति के प्रकाश को सूक्ष्मादि वस्तुओं में न्यस्त करके उन पर संयम करने से योगी को सूक्ष्म, गुप्त और पदार्थों का ज्ञान होता है। लय योगी अपने अन्तर्राज्य में शरीर के द्विदल स्थान में शुद्ध तेजपूर्ण बिन्दु का दर्शन करता है। वह ज्योतिष्मती प्रवृत्ति बिन्दु रूप से आविर्भूत होकर जब स्थिर होने लगती है, तब वही बिन्दु ध्यान की अवस्था है। उसी बिन्दु के विस्तार से योगी संयम शक्ति की सहायता और ज्योतिष्मती प्रकृति की सहयोगिता से अनेक गुप्त विषय और जल मग्न या पृथ्वी गर्भ स्थित समस्त द्रव्य समूह के देखने में समर्थ हो सकता है।
दसवीं सिद्धि
सूर्यनारायण में संयम करने से योगी को यथा क्रम स्थूल और सूक्ष्म लोकों का ज्ञान हो जाता है। स्थूल लोक प्रधानतः यही मृत्यु लोक है और विविध स्वर्ग तथा सप्त पाताल - ये सूक्ष्म लोक कहलाते हैं। अन्यान्य निकटस्थ ब्रह्माण्डों का ज्ञान लाभ करना भी सूक्ष्म लोक से सम्बन्ध युक्त ज्ञान है।
जारी रहेगा...................................
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ENGLISH TRANSLATION
FIRST ACCOMPLISHMENT
The antipathy - the rhythm of samskara which is the manifestation of nirodha - samskara and the one who is aware of both in the righteous form of the mind at the moment of detention, is called 'nirodha result - siddhi'. Restraint - From the sacrament, peace of conscience flows. From the sacrament of different subjects, which is the destiny of conscience, that 'decay of omnipotence and the rise of concentration is the end result of conscience. Then the conscience of a Yogi who wishes for perfection in concentration results in a calm, devoid of the omnipresence of vrittis like a waterless reservoir. Along with the suffix, the desire born of the siddhis, the lust of the seed is the embodiment of the yogi oriented to the accomplishment, the name of this stage is 'Udit suffix'. The position of the mind in both these suffixes is the same 'concentration result'. It should be understood that in the macro, subtle ghosts and senses also, 'Dharma result', 'symptom result' and 'state result' are described. The reduced form of righteousness in the earth is called the 'result of religion'. Ghatka, which renounce the present symptom, without renunciation of the non-existent symptoms, is the 'symptomatic result' of the religion and the Ghatka with the present symptom, which is new and new, moment by moment, is called 'state-result'. These three results are also considered in the senses in this way - just as the knowledge of the indigo-peetadi subjects is their 'Dharma Result', the present symptom of Neeladi knowledge which is known as 'symptomatic result'. . In the present condition, the apparent condition or the vague form is called 'stage result'. Shanta - Past, Udit - Present and Avyakdhyaya - Bhavishya, the righteous one who follows in religion. The distinction of order in the distinction of results is the causal form. The change of results takes place only by alternation of sequence, as first there are atoms of the soil, then they form clumps of clay, then they are formed from clumps of clay. Subtracts into a skull, becomes a shark from the cranium, and then, after being converted into a nuclear atom, takes the form of clay. In the same way, the former instinct of conscience converts according to the sequence in which the north-circle is due to the former. The change of all the ways of nature and the happiness in the inner being - the change of religions etc. of sorrow - all of them depend on this order - the rule. Therefore, the yogi has knowledge of the past and the future by exercising restraint in the three results called religion, symptoms and condition.SECOND ACCOMPLISHMENT
The combination of words, meanings and knowledge in one another is a hybrid, a close combination, when restrained in their departments, knowledge of 'speech of all beings' is realized.
THIRD ACCOMPLISHMENT
The yogi has knowledge of previous births through the observance of the rites. Just as a person generates the idol in a scientific photograph by generating the power of wearing the shadow form symbol of a human being by the machine, in the same way, due to the restraint in the rites, the yogi can have the exact knowledge of the form deeds due to the rites.
FOURTH ACCOMPLISHMENT
When you are restrained in knowledge, one has knowledge of the other's mind. The quality of results in the conscience is the same as the state of knowledge related to that conscience. Therefore, if you want to know the condition of the inertia of a particular organism, then by analyzing its knowled
FIFTH ACCOMPLISHMENT
Abstinence in the physical form becomes the pillar of his admissible power; And with the power of the pillar, the light of the other eye is not coincident with the body of the yogi, then the body of the yogi becomes infiltrated. Just as no one can see the form of the body of a yogi with restraint in the form, in the same way, the person, who is close to the words, touch, form, juice and smell of the yogi's body, can not know by restraining about the word five.
SIXTH ACCOMPLISHMENT
Sopkram - The Karma that becomes fruitful soon is called 'Sopkram', the state of that quick executive karma, as the cloth dries by drying the water-soaked cloth and dries quickly and the delay due to the slackness of the Kriparam - Karma - Vipak The stage of fruitful karma is called 'Nirupa Kram', as the unclothed filtered cloth dries over a period of time. In these two types of deeds, the yogi who is restrained gets knowledge of death. Or knowledge of death from three aristocrats.
SEVENTH ACCOMPLISHMENT
By exercising restraint in friendship, love, compassion and neglect, etc., you get the corresponding strength. The Yogi attains full morale, ie self-power, by attaining friendship, compassion, Mudita force and neglect force. The power which does not let the conscience fall into the senses regularly pulls it towards self-image, the same is called 'Atmaabal' or Tej.
EIGHTH ACCOMPLISHMENT
By exercising restraint in force, a yogi can get Baladi from a person. Force is of two types - one is self-power, the other is physical force. Due to the different nature, there is freedom in the force, such as lioness, gazelle, the power of powerful khecher birds and the force of powerful aqueducts. The yogi gets the same type of force by exercising restraint in the force of the same type of force as the force required.
NINTH ACCOMPLISHMENT
By controlling the light of Jyotishmati nature in microcosmic objects, the yogi has knowledge of subtle, secret and substances by controlling them. The Rāya Yogi visualizes the pure radiant point in the double space of the body in his inter-state. When that astrological tendency starts appearing and settles down, then that point is the state of meditation. With the help of restraint power and the help of Jyotishmati Prakriti, in detail of the same point, one can be able to see many secret subjects and water masses or all matter groups located on the womb of the earth.
TENTH ACCOMPLISHMENT
By exercising restraint in Suryanarayana, the yogi gets knowledge of the subtle and subtle realms in the order. The corporeal world is primarily the death world and the various heavens and sapta patala - these are called subtle worlds. Benefiting from the knowledge of other nearby brahmands is also knowledge related to the subtle world.
TO BE CONTINUE..........................
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