योगासन क्या है?{What is yoga}

 योगासन क्या है?

योग शब्द "युज समाधौ" धातु से बनता है। इसका अर्थ है समाधि। "यूजिर योगे" धातु से भी योग शब्द बनता है। इसका अर्थ है जुड़ना अर्थात जीवात्मा का परमात्मा के साथ मिल जाना या एक हो जाना। प्राय: हठयोगी तथा कुछ अन्य योगी भी योग का अर्थ यही लेते हैं परंतु ऐसा स्थूल अर्थ लेना उचित प्रतीत नहीं होता। कारण यह है कि जीवात्मा और परमात्मा प्रथक वस्तु नहीं है। किंतु चेतन तत्व एक ही है। भेद तो अविद्याजन्य है अतः औपाधिक है। भेद दर्शानेवाली अविद्या की योग समाधि के द्वारा निव्रति हो जाने पर चेतन में भेद नहीं रह जाता। चेतन एक ही रह जाता है, जैसे घटाकाश और मठकाश की उपाधिरूप घट और मठ नष्ट हो जाने पर एक महाकाश ही शेष रह जाता है। अतः जीवत्व भाव का विलोप करके ब्रह्म भाव में स्थित हो जाना ही योग है। इसी को जीवात्मा और परमात्मा मिलकर एक हो जाना कहा गया है। योगा अंगों का अभ्यास करते हुए चित्तवृत्ति निरोध पूर्वक असम्प्रज्ञात समाधि भूमिका में पहुंचकर अपने चैतन्य स्वरूप या ब्रह्म स्वरुप में स्थित हो जाना ही योग है।
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English Translation -

What is yoga

The word "yuj samadhau" is formed from the metal. It means samadhi. The word "Yugir Yoga" is also formed from the metal. It means joining, that is, the joining of the soul with the divine or becoming one. Often Hathayogi and some other yogis also take the meaning of yoga, but it does not seem appropriate to take such a broad meaning. The reason is that Jeevatma and Parmatma are not the first thing. But the conscious element is the same. The distinction is indistinguishable and therefore obsolete. When the yoga samadhi of the ignorant who shows the distinction is discouraged, there is no difference in the conscious. The Chetan remains the same, just as Ghatakash and Mathkash's inverted appearance and the monastery is destroyed when a Mahakash remains. Therefore, the elimination of the sense of living is to be located in the Brahman bhava. This is said to be the merging of the soul and the divine. Yoga is to be situated in your Chaitanya form or Brahman form by reaching the asamprajnagat samadhi role without restraining the mind while practicing the yoga organs.
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प्राचीन भारत में जितने मुमुक्षु संप्रदाय थे उनमें जो लोग तप स्वाध्याय और ईश्वर प्राणीधान रूप क्रिया योग के द्वारा आत्म साक्षात्कार करते थे, उन्हीं लोगों का संप्रदाय योग संप्रदाय कहलाता था। इस योग के पुरातन या अधिवक्ता हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अथवा शंकर है। समस्त दर्शन शास्त्रों में योग दर्शन ही प्राचीनतम दर्शन है। प्राचीन मुनि पतंजलि इस योग दर्शन के रचयिता हैं। इस योग के द्वारा समस्त तत्वों का ज्ञान जिस प्रकार सूक्ष्म रूप में परिवर्तित होता है, उसी प्रकार अन्य किसी साधना के द्वारा संभव नहीं, क्योंकि चित्त को संयत करने पर जो एकाग्रता प्राप्त होती है उस एकाग्रता का अभाव होने पर हम जागतिक किसी पदार्थ या विषय का भी ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते। जिस समय चित्त विषय आसक्ति प्रभृति अवैराग्य के द्वारा अभिभूत नहीं होता उस समय वह जिस एकाग्र भूमि पर आरोहण करता है उसके द्वारा निरोध रूप परमोप शांति नित्य प्रतिष्ठित होती है। इसके समान श्रेष्ठ बल और कुछ भी नहीं हो सकता। आत्म साक्षात्कार प्राप्ति ही साधना का चरम उद्देश्य है क्योंकि उसके अतिरिक्त दुख निवर्तिका का कोई दूसरा सुगम पथ पथ नहीं है। योग के द्वारा आत्म दर्शन प्राप्त करना ही परम धर्म है। हमारे समस्त दुख भोग का मूल चित्त का स्पंदन ही है। चित्त के स्पंदन की निवर्त्ति होने पर दुख की निवर्त्ति हो जाती है, अन्यथा लाख विचार करें, आलोचना करें या श्रवण करें, उससे कुछ भी नहीं हो सकता। हमारे देश की या अन्य देशों की भी समस्त साधनाओ में जो प्रणालियां बतलाई गई है, उनमें चित्त को न्यूनाधिक मात्रा में निरुद्ध करने का उपदेश सब संप्रदायों में प्रचलित है, ऐसा देखा जाता है। वास्तव में चित्त को स्थिर किए बिना कोई दुख से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। इसीलिये चित्तका चरम स्थैर्य जो समाधि है , उसके द्वारा त्रिताप - ज्वालाकी एकदम निवृत्ति हो जाती है । इन्द्रियजनित हमारा जो ज्ञान है , वह शुद्ध ज्ञान नहीं है , क्योंकि विक्षिप्त चित्तमें जो ज्ञान प्राप्त होता है , उस ज्ञानसे आत्मदर्शन नहीं होता । समाधिजनित ज्ञानके बिना कोई आत्मज्ञान अथवा आत्मसाक्षात्कार नहीं प्राप्त कर सकता । कठोपनिषद्में कहा है-

नाविरतो दुश्चरितानाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥

' जो व्यक्ति पापसे निवृत्त नहीं हुआ है , अथवा जो केवल इन्द्रियपरायण है एवं जो असमाहित अर्थात् एकाग्रतारहित, चञ्चलचित्त है  वह कभी आत्माको प्राप्त नहीं कर सकता, अथवा जो व्यक्ति अशान्त मनवाला है अर्थात् फल - कामनामें आसक्त चित्तवाला है , वह केवल विचारके द्वारा आत्माको नहीं प्राप्त कर सकता।'
उपनिषद्में आत्माकी प्राप्तिके विषयमें कहा है -

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वम्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः॥

' समस्त भूतोंके अंदर आत्म - चैतन्य गुप्तरूपसे निहित है, यह सबके सामने प्रकाशित नहीं होता। किंतु ध्यान - निश्चला सूक्ष्मबुद्धिके द्वारा सूक्ष्मदर्शियोंको यह आत्मा दिखायी देता है अर्थात् वह उनके सामने प्रकट होता है।' आत्मदर्शन करनेके लिये बुद्धिको अत्यन्त सूक्ष्म करना होता है। साधारणतः विषयव्यापारसंलग्न चित्त अत्यन्त स्थूल अर्थात् चञ्चल होता है। उस स्थूल चित्तमें सूक्ष्मतम आत्मदर्शन होना असम्भव है। इसीलिये चित्तको स्थिर करते - करते उसे इतना स्थिर कर देना होता है कि उसका सारा स्पन्दन शान्त हो जाय।
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English Translation -

Among those who were Mumukshu sects in ancient India, those who self-interviewed through Tapa Swadhyay and Ishwar Zeevadhana Roop Kriya Yoga, the sect of those people was called Yoga Sampradaya. The archaic or advocate of this yoga is Hiranyagarbha Brahma or Shankar. Yoga philosophy is the oldest philosophy in all philosophies. The ancient sage Patanjali is the author of this yoga philosophy. The knowledge of all the elements through this yoga is transformed into a subtle form, similarly it is not possible by any other practice, because the concentration that is attained by controlling the mind, we lack any concentration in the matter of matter or subject. Can not even get knowledge of. At the time when the mind is not overwhelmed by the attachment of attachment, impotence, at that time, the peace on which he ascends the land, he is always reputed as a form of restraint. There can be nothing better than this. Self-realization is the ultimate aim of spiritual practice because there is no other easy path to sadness, other than that. The ultimate religion is to attain self-realization through yoga. The root of all our suffering is the pulsing of the mind. When the flutter of the mind is withdrawn, the grief is dissipated; otherwise, think a million, criticize or listen, nothing can happen from it. In all the practices practiced in our country or in other countries also, the preaching of clearing the mind in more and more quantity is prevalent in all the sects, it is seen that. In fact, one cannot get relief from suffering without stabilizing the mind. That is why the tritapa-jwali of the Chittaka is of extreme constancy, complete retirement. Our knowledge that is sensible is not pure knowledge, because the knowledge that is received in the deranged mind does not lead to self-realization. No one can attain enlightenment or self-realization without attested knowledge. It is said in the Kathopanishad-

नाविरतो दुश्चरितानाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥

'A person who is not retired from sin, or who is only sensuous and who is unconcerned, unconstrained, unconcerned, can never receive souls, or a person who is unrestrained, that is, mind-obsessed with fruit, he is not a soul only by thoughts Can get. '
In the Upanishads, it is said about the attainment of the soul-

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वम्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः॥

'Self-consciousness is inherent in all ghosts, it is not published in front of everyone. But meditation - through subtle-intelligence, this soul is visible to the microscopes, that is, it appears in front of them. In order to introspect, people have to be very subtle. Generally, the subject-linked mind is very voluminous. It is impossible to have the smallest introspection in that gross mind. That is why, while stabilizing the mind, it has to be so stable that all its vibrations become silent.
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